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________________ २३ ला था । अंक १] दिगंबर जैन. ६९ तप, त्याग, आकिञ्चन, सम्यक्ज्ञान, प्रथ- कि इस आश्रमको समयानुसमय हर प्रमानुयोग, कर्णानुयोग, चर्णानुयोग, द्रव्या... कारसे सहायता करते रहना चाहिए । नुयोग, धर्मध्यान, धर्मोपदेश, परोपकार (२) ऐलक श्री चंद्रसागरजी महाराजःऔर स्वर्गसुख । ____आपका जन्म सरगूर प्रांत म्हैसूरमें वीर _____ साधुमेंसे निकले हुए अङ्घरों-ऋद्धि, सं. २४ ०५में हुआ है। ग्रहस्थाश्रममें कल्पातित सुख, ज्ञान-मति, श्रुति, अवधि, आपका शिक्षण यथातथाच हुआ था मनःपर्यय; अङ्ग, पूर्व, प्रकीर्णक, समिति, और आपने सं. २४३६में श्रवणबेल्गुलके महावत, केवलज्ञान, गुप्ति, शुक्लध्यान, महामस्तकाभिषकोत्सवके समयपर दिक्षा समाधि और मोक्ष । ली थी । दिक्षाकालके पीछे आपका गृहस्थमेंसे निकले हुए अधुरों-विद्या- शिक्षण कनड़ी और संस्कृत अच्छा हुआ ज्ञान, बुद्धि, विवेक, कलाकौशल्य, आवि- है और आपने बहुत परिश्रमसे "भक्ता कार; धर्म-देशसेवा, देवपूजा, गुरुपूजा, मर वृत्तिसार समुच्चय" नामक संस्कृत ग्रन्थं स्वाध्याय, संयम, तप, दान, देवगति, (राममल्लविरचित कथा, मंत्र, यंत्र आदि भोगभूमि; सुख-संतान, बल, साहस, इंद्रिय- सहित) कनड़ी भाषांतर सहित हालहीमें सुख, धैये, दीर्घायु, राज्य और अर्थ। प्रकट कराया है । और कोई.ग्रन्थ प्रका शनके कार्यमें ही आपका परिश्रम चल रहा . इस प्रकार ब्रह्मचर्यरुपी मूलसे ६३ अङ्कु- है। आपका आचरण और स्वभाव भी. रों निकले हैं । सच्चे उदासीन, साधु बहुत ठीक है। या गृहस्थ बनने के लिये हस्तिानापुर (३) भट्टारक श्री देवेन्द्रकीर्तिजी:(मेरठ) में " श्री रुषभब्रह्मचर्याश्रम" आ भट्टारकजीनो जन्म सं. १९१६ मां तीन सालसे स्थापित है और ५ वर्षसे थयेलो अने बाळपणमांज पंडितपणानी १४ वर्ष तकके अंदाजन ५० छात्रों सुभी- दिक्षा लीधी हती अने दिक्षागुरु अमोलखतासे पढ रहे हैं जिसके संचालकों ब्र. चंदजी हता. गुरुनी पासे न रहेता एमनो गेंदनलालजी, भगवानदीनजी, बाबा भगी- विद्याभ्यास जयपुरमां थयो हतो, ज्यां २५ स्थजीवर्णी आदि है और व्यवस्थापकों बाबू वर्षनी उमर सुधी पुराण, चरित्र, सिद्धांत अजीतप्रसादजी एम.ए.एलएल.बी,साहू जुग- वगेरे अनेक ग्रंथोर्नु पठन करी संस्कृतमा मंदिरदासजी नजीबाबाद आदि हैं । मासिक सारुं ज्ञान प्राप्त कर्यु छे तेमज ज्योतिष व्यय १०००) रुपया है जब धूव फंड अने वैदकशास्त्रनुं ज्ञान पण प्राप्त करेलु बहुत कम है । हरएक जैनीका कर्तव्य है छे तथा कोश ग्रंथो पण जोएला छे. ४१
SR No.543085
Book TitleDigambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1915
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size19 MB
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