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________________ दिगंबर जैन. अंक १ ] जीवकोर: बैराओनी मीटींगमां वळी शुं होय ? कांइ पैसा कमावानी के छोकरा - छोकरीओना विवाह करवाना होय छे ? हरकोर : -- मीटींगमां पैसा कमावानो तथा विवाह करवानो विचार थतो नथी, परंतु जातिउन्नति अने व्यवहार सुधारवानो विचार करवामां आवे छे. केम परसनव्हे ! श्रीमती मगनव्हेननी मीटींगमां शुं शुं विचार थाय छे ते आपणा जीवको र काकीने समजावो वारु ! परसन: -- हुं गया बुधवारे त्यां गई हती, त्यारे ते त्रण - चारे व्हेनो मळी विचार करती हती के कई कई जग्याए पाठशाला नथी. ज्यां न होय त्यां ऊघाडवानी तजवजि करवी. ज्यां ज्यां पाठशाळामां भणावनार अध्यापिका—(स्त्री शिक्षक) न होय त्यां मोकलवी. आपणी गुजरात तरफनी व्हेनोमा ज्ञाननो प्रसार करवो, दीन दुःखी व्हेनोनुं दुःख जेम बने तेम दुर् करवा कोशिष करवी अने आपणामां जे अंधश्रद्धा वधी पडी छे तेनो नाश करवा - ना उपाय शोधवा, पुस्तको छपावी भेट मोकलवा, विगेरे अनेक प्रकारना विचार करी ठराव नक्की करतां हतां. एक बीजानी सलाहथी ते व्हेनो काम करे छे; वळी वनिताविश्राममां पण चार पांच व्हेनो बेसीने विचार करे छे अने केवी मोटी संस्था चलावे छे तेमज 'भारतवर्षीय जैन महिला परिषद' वर्षे भराय छे. दर ९७ जीवकोर काकी:- ठीक, पहेलां तो चार भायडाओ एकठा थाय एटले पंच भेगुं थयुं कहेतां आ मीटींग बीटींग तो अमारा पुरुषोज कोई भण्या नहोता तो बैरां भणेज क्यांथी ? चंचळ :- हमणां पण क्यां एटला पुरुषो आपणामां भणेला छेके, जेटला दक्षणी, बंगाली, विगेरे भणेला छे ? एक कहेवत छेके जे न भणे न भणावता, जंगलमांना शूरः हरनिश स्त्रीओने वखोडता, उतरे तेनुं नूर. परसनः - हरकोर व्हेन ! अत्यारेज मिटींग थवा द्योने, वळी रातना कोई आवेके न आवे ! बैरांओनुं काम; हमणां बधां सहेज भेगां थयां छीए. बधाना मत पण लेवाशे. केम व्हेनो ? एक कलाक बधा बेसशो ? (बधाए हा कही.) घणां थाय छे, तेथी आपणुं केटलं नुकशान हरकोर : - हालना वखतमां अल्पमृत्यु थाय छे तेनो विचार करी, तेम नहीं थवा देवाना उपाय योजवानी जरुर छे. पहेलां आपणे अल्पमृत्यु थवानां मूळ कारणो शोधी काढीए. एक तो बाळविवाह; बाळ विवाह करवाथी छोकराओनो न्हानपणथीज वीर्यपात थाय छे अने तेथी आयु क्षीण थतुं जाय छे. वर्तमान आयु विरुद्ध निमित्त मळवाथी क्षय पामे छे तथा अनेक प्रकारना रोग उत्पन्न थई पीडीत करे छे. पछी परणेली बिचारी
SR No.543085
Book TitleDigambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1915
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size19 MB
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