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( २) हम बार २ ऐसा सुनते हैं कि बच्चे की क्रिया शक्ति को हमें तोड़ देना चाहिये । क्रिया शक्ति को बढ़ाने की उत्तम रीति तो यही है कि बच्चे को अपनी क्रिया शक्ति को पड़ों के स्वाधीन कर देना चाहिये अर्थात् उनको हमारे भाधीन बरतना चाहिये। बच्चों पर हम जो जुल्म करते हैं वे कितने अन्याय भरे हुए हैं उनको अलग रख दिये जायें तो भी विचार तर्क विरुद्ध मालूम होता है। बच्चे के पास जो वस्तु नहीं है उसको बड़े कहां से दे सकते हैं। हम स्वयम् ही उनकी क्रिया शक्ति को बढ़ाने में दखल करते हैं अतएव भाज्ञा, स्वाधीनता, चारित्र आदि गुण जिसका कि आधार क्रिया शक्ति पर है कैसे उनमें पा सकते हैं ?
जहां देखो वहां आज शिक्षा परिषदों में शिक्षा के विषय में बहुत कुछ कहा जाता है और यह भी कहा जाता है कि आजकल के विद्यार्थियों में चारित्र बल नहीं है तो भी ये व्याख्यान देनेवाले इस बात की जरा भी परवाह नहीं करते हैं कि ऐसी स्थिति होने का कारण क्या है ? दरअसल देखा जावे तो इसका कारण वर्तमान शिक्षा प्रणाली ही है अर्थात् क्रिया शक्ति के विकाश का विरोध । बच्चे को कार्य करने नहीं देना और हमें कार्य करना, बच्चे को पढ़ने नहीं देना परन्तु हमें खुद उसको पढ़ाना, बच्चे को विचार करने नहीं देना परन्तु उसके विचारों में दखल करना आदि ये क्रिया शक्ति की शिवा की विरोधी वाते हैं। चारित्र बलजोरी से नहीं हांसिल होता है। इसका सच्चा उपाय तो मनुष्य का विकाश-उसका शरीर, मन आदि की प्रवृत्तियों को स्वाधीन करने में ही है।
स्वातंत्र्य । - स्वातंत्र्य अर्थात् प्रवृत्ति । स्वाधीनता में से ही संयमन और व्यवस्था प्रगट होती है परन्तु कोई यह सवाल करे कि स्वतंत्र बच्चों के वर्ग में व्यवस्था कैसे रखी जाय ? प्रश्न अस्वाभाविक नहीं है कारण कि आजकल की पाठशालाओं में बच्चों की प्रवृत्तियों को रोक कर एक ही उपाय से शान्ति
और व्यवस्था रखी जाती है परन्तु यह शान्ति मृत देह की है चेतन की नहीं है, यह व्यवस्था जड़ पदार्थों की है, जीवंत जीवों की नहीं है।