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(८०) स बालक को संयमित बना सकते हैं इससे हम नियमन पर अधिक भार रखते हैं। परन्तु जो वस्तु अन्दर से आनी चाहिये वह प्रार्थना से अथवा हुक्म से प्रथका जोर जुल्म से प्राप्त नहीं हो सकती है। हर आदमी ऐसा मानने की सामान्य भून करता है। सच्च और विचित्र बात तो यह है कि हम छोटे बालक को संयमित बनने का कहते हैं तब वस्तुतः हम उस से माकाश चन्द्र मांगते हैं।
सच्चा नियमन किसमें है ? उसका हमें विचार करना चाहिए सामान्यतः बच्चा में नियमन कुदरती है। कुमार अथवा युवान में यह स्वाभाविक है। मनुष्य में यह स्वयमेव जन्म लेता है। जनता का यह एक अत्यन्त बलवान लक्षण है। मनुष्य हृदय में इस वस्तु की प्रेरणा बहुत दृढ़ है। चमत्कारिक नियमन के गुण पर ही सामाजिक जीवन की नींव खड़ी है। समाज जीवन में नियमन पाया रूप है। नियमन का जो राज मार्ग है उसके ऊपर संस्कृति रथ चला करता है। संक्षेप में समाज की इमारत के नीचे नियमन की नींव है।
नियमन अर्थात् स्वार्पण | इस संसार में नियमन के प्रसङ्ग बहुत ज्यादा हैं उनको हम अच्छी तरह से पहिचानते भी नहीं हैं। जो वीर लश्कर के नियमन के अनुसार जीवन सुधा समर्पण करता है उसकी हम तारीफ करते हैं। परन्तु जो वहां से भाग जाता है उसको बदमाश या मूर्ख कहते हैं। अक्सर लोगों को, जो मनुष्य उनको जीवन मार्ग में ऊंचे चढ़ाता है उसकी प्राज्ञा के अनुसार कार्य करने का प्रध्यात्मिक अनुभव होता है उसको आज्ञा उठाने के लिए ही यदि भोग देना पड़े तो वे देने को तैयार हो जाते हैं।
नियमन ही जीवन का कानून है । बच्चे में वह आ सकता है परन्तु अभी हमने बच्चों को नहीं पहिचाना है नियमन की शक्ति को बढ़ाने के लिये उनमें जिस क्रिया शक्ति की जरूरत है वह बढ़ाने नहीं दी गई है इससे उलटा हम उनके काम में दखल करते हैं सिर्फ इच्छा से ही संयमित नहीं हो सकते हैं उसके लिए मनुष्य में क्रिया शक्ति का बल होना चाहिये । जब हम बच्चे को कोई काम का हुक्म देते हैं तब हमारे कथन में यह गर्मित रह जाता है कि हुक्म उठाने के लिये बच्चों में क्रिया करने की शक्ति है या नहीं है। यदि बालक में क्रिया शक्ति और बुद्धि का बराबर विकाश हुआ हो तो नियमन स्वाभाविक है।