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उठना बैठना आदि और जमीन पर पैर की अंगुलियों पर चलना आदि के सब बच्चे को व्यवस्थित करने के काम में असरकारक तैयारी रूप है।
बेशक बाहिर की प्रवृत्ति अन्तर विकास को प्रेरने का साधन मात्र हैं बाहिर की प्रवृत्ति अन्तर विकास को भी प्रगट करती है। प्रवृत्ति से बच्चा दिन व दिन मानसिक प्रदेश में आगे बढ़ता और विकसित होता जाता है इस बढ़ते हुए मानसिक विकास से उसका बाहिर का काम सुधरता जाता है और साथ ही साथ उसका आनन्द भी बढ़ता जाता है ।
नियमन यह हकीकत नहीं है, वस्तु नहीं है एक मार्ग है इस मार्ग पर चलने से बच्चे को सच्चाई का यथार्थ ख्याल आता है । यह मार्ग निश्चित हेतु सिद्ध करने के लिए अन्तर में से उद्भवित प्रवृति से चलने का । निश्चित हेतु सिद्ध करने के लिए की हुई प्रवृत्तिओं से जो आन्तरिक सुव्यवस्था का जन्म होता है उसका बालक को भव्य आनन्द मिलता है । भिन्न २ क्रियाएं करते समय वह अन्तर में जागृति और आनन्द का अनुभव करता है इस पर से वह अपने शक्ति भण्डार को घढ़ता है उसमें वह माधुर्य और बल का संग्रह करता है । माधुर्य और बल धार्मिकता के मूल हैं। जब बच्चे में सुव्यवस्थित प्रवृति करने के परिणाम स्वरूप अध्यात्मिक ज्योत प्रगट होती है तब उसके चहरे के और गम्भीर प्रकाशित आँख के भाव रसिक और कोमल हो जाते हैं ।
अपनी मर्जी माफिक अव्यवस्थित क्रिया करने वाला बच्चा अपने अध्यवस्थित कार्यों के सबब से थक जाता है। कुदरती तौर पर श्रम का भारांम व्यवस्थित काम में है । स्वच्छ हवा में स्वाभाविक गति से स्वच्छ श्वास लेने में फेफड़ों को आराम पहुंचता है। स्नायुओं से काम लिया जाय तो उलटी उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों में रुकावट हो जाती है और उनको श्रम करना पड़ता है और इससे वह पतित दशा को पहुंचता है। यदि फेंफड़ों में विकाश करने की प्रवृति बन्द करें तो वे शीघ्र मर जाते हैं और उनके साथ ही मनुष्य का जीवन पूरा हो जाता है इसी माफिक बच्चों की प्रवृतिएं भी हैं। मन के अनुकूल निश्चित स्वरूप के में आराम । कुदरत के गूढ़ और छुपे आदेश के अनुसार बर्तन रखने में ही सच्चा आराम है। मनुष्य बुद्धिवाला प्राणी है इससे अधिक वह
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