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की है परन्तु इसके बमय मेरे साहश स्थिर खड़ा रहे ऐसा करने से बच्चे की अशक्ति के अंधकार में प्रकाश नहीं पड़ता है। विकाश के मार्ग को जाते हुए मनुष्य को सिर्फ प्राज्ञा करने से सहायता नहीं होती है। बड़ी उम्र का मनुष जो अपने खराब आवेश का स्वरूप जानता है और अपनी क्रिया शक्ति के बल पर उसको झुकाने को समझता है। वह ऐसा करने को शक्तिमान् है परन्तु बच्चे का मुकाबला उसके साथ नहीं किया जा सकता।
बच्चे के विषय में तो इतना ही है कि जब उसके स्वाभाविक विकाश का समय हो जाय तब ऐच्छिक कार्य में उसको मदद करने की है। प्रकृति करने की छूट यह एक सहायता है दमरी सहायता वालक की हिलचाल कैसे व्यवस्थित होसके उन हिलचालों का प्रथक्करण करके उसके आगे रखने की है। बच्चा धीरे २ उस पर विजय प्राप्त करेगा।
इसके लिये भिन्न कक्षाओं की स्थिरता बालक को बताना जरूरी है। कुर्सी पर बैठना, खड़ा होना, चलना, फण पर चलना, जमीन पर निकाली हुई लकीरों पर चलना, सीधे खड़े रहना आदि हिलचाल कैसे होती है उनको बताना भादि । पदार्थ इधर से उधर कैसे ले जाया जाता है सम्हाल कर कैसे रखा जाता है कपड़े कैसे पहिने जाते हैं और उतारे जाते हैं आदि सब में कैसी हिलचाल होती है वह भी दिखाने का है इसके परिणाम से शरीर की सम्पूर्ण स्थिरता आ जाती है। शान्त बैठो, स्थिर बैठो भादि कहने की जरूरत नहीं रहेगी। इस तरह की कसरतों से बालक में अपनी उम्र के योग्य स्वाभाविक शारीरिक नियमन आ जायेगा। जब प्रवृति सरल होती है तब भव्यवस्था का नाश होकर व्यवस्था आती है। इस तरह से संयमित बच्चा मात्र अक्रियता से नहीं फिरता है परन्तु, पहिले से वह अब व्यवस्थित हो गया है उसने विकास का एक पैर आगे बढ़ाया है, उसने अपनी स्वाधीनता बढ़ाई है उसकी शान्ति अर्थात् निष्क्रियता नहीं है, उसकी शान्ति भी प्रवृति ही है।
" ध्यान के खेल में इस चमत्कारिक नियमन की साधना में बहुत सहायता मिलती है। समपूर्ण स्थिरता, दूर होठ फैलाकर बोलते आवाज को पकड़ने के लिये ध्यान की एकाग्रहता, कुर्सी अथवा ट्रेवल के साथ फिरे बिना सुनकर चलना