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________________ ५ ) एक समय जो जाति मौर सिर भारत की थी । वह ही हो रहि आज क्षुद्र धन हीन घनीसी ॥ २३ ॥ कैसे उन्नति होय फूट हम में है भारी । रत्न प्रसू थी ज्ञाति आज हो रही भिखारी ॥ वे हैं हम से नीच ऊँच हम उनसे भारी । ॐ शान्तिः करते नहीं विचार जाति की करते ख्वारी ॥ २४ ॥ देव दयानिधि करो दया हम पर अब भारी । जिससे होवे नाश कुबुद्धि हमारी " विमल" सरीखे रत्न हमारे में फिर होवे । सारी ॥ उन्नत हो यह ज्ञाति समय अब वृथा न खोवें ॥ २५ ॥ समय कह रहा तुम्हें जल्द निद्रा को त्यागो । वरना होगा नाम शेष चित्त में यह पागो ॥ उन्नति की हो चाह ऐक्य की नदी बहाओ | शिवनारायण कहे शाख का भेद मिटाओ ॥ २६ ॥ ॐ शान्तिः ॐ शान्तिः कन्या - विक्रय कन्या - विक्रय यानी कन्या जिसको दी जाती है उसके पास से किसी न किसी रूप में एवज लेना ही कन्या विक्रय है। जैन, वैदिक, मुसलिम, ईसाई आदि दुनिया के सब धर्मों वाले कन्या विक्रय का निषेध करते हैं। बहुतसी जगह रिवाज चला आता है कि जिस जगह कन्या दी जाती है उसके घर का पानी तक नहीं पीते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि जिस घर का पानी तक पीने में परहेज है उसके यहां से सैकड़ों हजारों रुपयों की थैली को हजम करना भी त्याज्य है । परन्तु मनुष्य लोभ के वश अपना भला बुरा कुछ नहीं देखता है अतएव लोभी मनुष्य अपना स्वार्थ देखने में कन्या के स्वार्थ को खो बैठता है। लोभ के खातिर जोड़ा न देख कर काये कुबड़े, बुद्दे लुच्चे, लफङ्गे आदि 2
SR No.541510
Book TitleMahavir 1934 01 to 12 and 1935 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi and Others
PublisherAkhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
Publication Year1934
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Mahavir, & India
File Size14 MB
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