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सेगुइन परिणाम की शिक्षा भांख से देता है इसलिये मोन्टीसोरी पद्धति जिसको लम्बी सीढी के नाम से पहिचानते हैं उसीको साधन कहते हैं। लमी लकड़ी छोटी लकड़ी की पहिचान सीखाये बाद लकड़ियों को शामिल कर दी जाती है और फिर उनको बालक के पास क्रमवार रक्खी जाती है। बचा धीरे २ यह काम बहुत शीघ्रता से करता है कि हम लोग भी उतना न कर सकें। बालक को अन्तर का खयाल भी कराया जाता है। शिक्षक एक ही साइज की पुस्तकें भिन्न २ अन्तर पर रखता है और उसी प्रकार बालक को करने के लिये कहता है बालक इस तरह करते २ भाखिरकार अन्तर का तत्व समझता है। इसके बाद वह माज्ञा को सुन कर भी अन्तर के ध्यान में रख कर उनकी व्यवस्था की रचना करता है । स्वयं मध्य बिन्दु समझ कर दूर और नजदीक के पदार्थों के बीच का अन्तर जानना बालक को सीखाया जाता है इस तरह परिणाम और अन्तर का खयाल आये बाद बच्चे को चित्र की शिक्षा दी जाती है। मूढ़ बच्चे को सपाटी का खयाल नहीं होता । इसलिये शिक्षक रेती की वेदी करता है
और कराता है। पार्टी अथवा ऐसी प्राकृतियों पर भंगुलिएं फिरवाता है उसके बाद शिक्षक स्वयम् एक पेन्सील लेकर मूढ़ ( जड़ ) बच्चे को देता है स्वयम् स्लेट के चारों भौर लकीर निकाल कर बच्चे को ऐसा करने को कहता है बच्चा वैसा ही करता है। बच्चे के स्नायु काबू में नहीं होते हैं अतएव उसके लिये लकीर निकालना कठिन हो जाता है। यह कठिनता दूर करने के लिये बच्चे को मिट्टी अथवा गारा दिया जाता है। बच्चा उससे चौकुनी त्रिकोन भादि प्राकृतिएं बनाता है चूरी से मुलायम लकड़े में लकीर करने का काम भी सौंपा जाता है । सेगुइन की मान्यता समधारण बालक के लिये ये सब कीमती है। कारण कि उसके द्वार। बालक रूप की कल्पना कर सकता है। कदापि इन इन कामों से बौद्धिक लाभ कम होता है तो भी बच्चे का खयाल चित्र तथा लेखन के लिये दृढ़ और निश्चित होता है।
: अनुकरण पद्धति से शिक्षा का काम शुरू किया जाता है शिक्षक काले तख्ते पर मिन्न २ दिशा में लकीरें निकालता हे और बालक से भी उसी तरह लकीरें निकलवाता है। जब बच्चे को सीवी लकीरें निकालना भाजाय तब गोल लकीरें निकलवाई जाती हैं। इस तरह लकीरों से चित्र की शिवा शुरू