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अपूर्णता में पूर्णता लाने की है, वैयतिक खासियतों देखने की है, वैचित्रम होशियारी करने की है और भिन्न २ रुखों की योग्य अनुकूलता करने की है।
संगुइन का दूसरा सिद्धान्त यह है कि मनुष्य अपने जीवन की प्रत्येक पल में यह अनुभव करता है, समझता है और क्रिया करता है मनुष्य मनुष्यस्व प्राप्त कर सके इसके लिये उसको शरीर की, मन की और क्रिया शक्ति की उत्तम प्रकार से शिक्षा दी जानी चाहिये। ये तीनों क्रिया मनुष्य में एक ही साथ बनती हैं तो भी शिक्षा का क्रम अनुक्रम से प्रथम शारीरिक इसके बाद मानसिक और मानसिक के बाद क्रिया सम्बन्धी होना चाहिये। एक के शिक्षा के प्रभाव से दूसरे को नुकसान होता है । सिर्फ मानसिक शिक्षा शारीरिक तथा क्रियात्मक शक्ति का उलटा ह्रास करता है ।
संख्याबन्ध विद्यार्थियों को वर्ग में इकट्ठे कर उनका व्यक्तिगत रुख जाने बिना उनको एक सिपाहियों की टुकड़ी के सदृश गिन कर सामुदायिक शिक्षा देने का सेगुइन विरोध करता है। उनकी शारीरिक मानसिक अथवा दूसरी शक्ति का व्यक्तिगत विचार किये बिना शाम हो जाने पर शिक्षा के पांच डोज जबरदस्ती किसी पर लादने की रीति की निन्दा करता है । मात्र स्मरण शक्ति पर अत्यन्त बोक लादने वाली और शरीर और मन के धर्म का पक्षघात उपजाने वाली शिक्षा की वह निन्दा करता है। यहां पर यह देखा जा सकता है कि मोन्टीसोरी के विचारों के लिये सेगुइन ने कैसी भूमिका तैयार करली है। की व्यक्ति को मान देने का सिद्धान्त मोन्टीसोरी पद्धति की नीव है और इसका पहिला पत्थर संगुहन रखता है ।
२ - क्रियातन्तुओं की शिक्षा-इन्द्रियों की शिक्षा पर बुद्धि का और दूसरी शिक्षा की इमारत निर्माण करने कराने का मान सेगुइन को ही है। शरीर की, स्नायुओं की तथा इन्द्रियों की शिक्षा के विषय में मोन्टीसोरी ने सेगुइन के पास से बहुत कुछ लिया है। सेगुइन ने सब मूढ़ बालकों को शिक्षा देने के लिये जो पद्धति की योजना की थी उसी को डा० मोन्टीसोरी ने समधारण बालकों को स्वयं शिक्षा देने के काम में लिया है। संगुइन के सिद्धान्त मोन्टीसोरी से मिलते हैं परन्तु वह उसका बड़ा पूर्वाचार्य है। मूढ़ बालकों को शिक्षा देने की योजना
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