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की पत्नी होने को किमी भी स्त्री को तत्पर न होना चाहिये । श्रसंकोच से ईश्वर और मनुष्य के सामने किसी स्त्री को स्त्री कह कर ग्रहण करने की जिसमें हिम्मत नहीं है वह पुरुष निश्चय नहीं चाहता । उसका मतलब यह है कि उस सम्बन्ध मूल में निकृष्ट भाव है । यदि जैन समूह ऐसे युगल को अपने शामिल करना न चाहे तो वैसा करने का उनको अधिकार है क्योंकि लग्न के समय जिसने जन समूह की परवाह नहीं की वे दूसरीवार शिकायत कर ही नहीं सकते ।
पुरुष सैकड़ों प्रेम युक्त बातें करके कान का सुख दे तो स्त्री को उसे ऐसा कहना चाहिये, "धैर्य धारण करो, भद्रोचित और धर्म रीतिअनुसार के धर्मपत्नी समझ कर स्वीकारो । बाद में तुम्हारे जीवन की संगिनी बनूंगी जिस स्त्री में ऐसा कहने की शक्ति उत्पन्न नहीं हुई, उसने दुःख सहन करने के लियेजन्म लिया है ।
लग्न के पूर्व जो पुरुष गैर आचरण करने लग जाय, हे नारि ! तुम बुद्धिवान हो तो निकृष्ट चाल चलने वाले पुरुष को पहिचानलो और जिस प्रकार घर में सांप से भय रखती हो उसी प्रकार उसका संग छोड़ो ।
जिस प्रकार प्रेम करना नारी का कर्तव्य है उसी प्रकार विश्वास रखना यह उसकी प्रकृति हैं। बहुत से नीच आदत वाले और विश्वास घातक पुरुष इसी कारण से नारी को बड़ी विपत्ति में डालते हैं। मूर्ख और अपदार्थ स्त्री धर्मनियम से अपने को शासन और रक्षा नहीं कर सकती उनको दुर्गति से कौन बचा सके ।
लग्न करने वाली स्त्री ! तुमको एक शिक्षा दी जाती है कि यदि प्रेम से गम्भीरतापूर्वक बन्धन में आ गई हो तथापि धीरता और लज्जा की सीमा का उलंघन मत करना | इलकी जाति के प्राणियों में भी देखोगे तो स्त्री जाति पुरुष को नहीं ढूँढ़ती । परन्तु पुरुष ही स्त्री को ढूँढ़ते हैं । यदि स्त्री प्रेम की इच्छा वाली हो तो उसका मान नहीं रहता । जिस प्रकार मच्छली का पेट चीर कर उसमें से आंत निकाल कर उसको स्वच्छ रखने पर भी मच्छली उसको देखने की इच्छा नहीं करती । उसी प्रकार जो स्त्री धीरता और लज्जा की सीमा उलंघन कर अपने छिपे भाव दस मनुष्यों के सन्मुख खुल्ले रखती है उसकी तरफ भी देखने की इच्छा नहीं होती । स्त्री की स्वछन्दता से बहुत से लग्न- टूट गये हैं।