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मनु ने लग्न को दो प्रकार की विधि बताई है। आठ वर्ष में कन्या को व्याह देना श्रेष्ठ है परन्तु यदि पिता किसी कारण से अपना कर्तव्य पालन न कर सके और कन्या का व्याह न कर सके, तो दूसरी विधि यह है कि कन्या युवा अवस्था में आने बाद तीन वर्ष तक पिता के घर में बाट देखे बाद अपने मन पसंद स्वामी के साथ विवाह करे। परन्तु हम छोटी ऊमर में कन्या को ब्याहना ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध समझते हैं जिससे दूसरी विधि का हम अवलम्बन करते हैं, क्योंकि पहिली विधि में कम्या में अपने भविष्य के अच्छे बुरे का विचार करने की शक्ति ही उत्पन्न नहीं होती।
प्रथम हम कह चुके हैं कि प्रेम की जड़ में श्रद्धा है। पश्चिमी विद्वान एमेट्सन कहता है कि एक लड़की प्रतिरोज दुकान पर खाने पीने का सामान मोल लेने जाती थी। उस समय बहुत से लड़के उसका ठठा करते थे और हंसते थे इससे वह बाला उक्ता जाती थी। एक दिन उन छोकरों में से उस लड़की के हाथ से एक रुमाल गिरता हुआ देखा उसे देखते ही उसको उठाया उसमें रखी हुई चीजें बीन कर उस लड़की को दी। यह देख कर प्रेमका जन्म हुआ। जहां तक लघु चित्तता है वहां तक प्रेम बहुत दूर है। श्रद्धा से हृदय पूर्ण नहीं होता वहां तक प्रेम के चरणाविम्ब नहीं पड़ते । इसीलिये जहां सत्य प्रेम है वहां नीच प्रवत्ति को स्थान नहीं मिलता।
लम तीन तरफ से देखा जाता है:- . । (१) ईश्वर की तरफ से (२.) धर्म समाज की तरफ से ( ३ ) साधारण जन मंडल की तरफ से। प्रत्येक लग्न में ये तीनों बातें होनी चाहियें। ईश्वर का नाम लेना, धर्म समाज की पद्धति और नियम से चलना, जन मंडल के सामने लग्न करना।. . ... ..... ... .
जो पुरुष स्त्री को दम्भ से कहता है कि अपने में प्रेम उत्पन्न हुआ है तो ईश्वर के प्रामे स्वामी-स्त्री है। दश मनुष्यों को बुलाने की क्या मावश्यक्ता है ? ईश्वर तो जानता है कि अपना लग्न हुआ है। इस प्रकार जो पुरुष कहता है वह स्वार्थी है क्योंकि वह एक स्त्री की हानि करता है क्या वह नहीं. देखता ? यदि वे लोग भय से ऐसा करने की इच्छा करें तो वे पुरुष अपदार्थ हैं। ऐसे पुरुष