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पोरवाल जति की महिमा
मोडन्य गढ़ के श्रेष्ठ महिसा लाल थे इस होति के
थे रत्न पेथंड से अनेकों पुत्र नाना भांति के ॥ प्राग्वाट कर थे दानरत अतिथी चमकती न्याय से ।
थी बुद्धि श्रद्धायुक्त वे डरते सदा अन्याय से ॥११॥ इन पूर्व के सत्पूर्वजों की है कथा श्रानन्द दा ।
सत्स्फूर्तिदा है कीर्तिदा हम सब को है शिक्षाप्रदा ॥ हा ! हा ! परन्तु शौक है ! अनभिज्ञता इतिहास की ।
अब भी खटकती है नहीं, पर्वा नहीं परिहासकी ॥ १२ ॥ वीरत्व को है खो दिया धन्बा लगाया धर्म को ।
जैनी रहे अब नाम के जाने नहीं उस मर्म को ॥ संतान वीरों की अहा ! निर्वीर्य क्योंकर हो गई ।
परिवार के स्त्री पुत्र की रक्षाभि कर पाते नहीं ॥१३॥ तळकर क्या ! भब चाकु का उपयोग भी जाने नहीं । बस फूट ईर्षा के सिवा ये न्याय को माने नहीं ॥ मिलकर सभी एकत्र जो निज शत्रु को ललकारते ।
अब वे परस्पर बड़ झगड़ कर शत्रुओं से हारते ॥ १४॥ धन, धर्म में जो काम श्राता जारहा दुष्कर्म में I
पर वर्म ढकने की अपेक्षा घाव करते मर्म में ॥ परमार्थ की इच्छा नहीं सबै स्वार्थ ही में है जुटे ।
जब किसकी भले इस जाति का न गला घुटे ॥ १५॥ धन के नशे में धुन्द हो विद्या से वंचित हो गए ।
विद्या गई तब मूर्ख हो धन कोष से कर धो गए ॥ कह रूढियाँ कारण अविद्या के तभी भाकर घुसी ।
अश्लीलता भी श्राधसी स्त्री गायनों में राक्षसी ॥१६॥ सम्मान भी तो चलबसा बक्काल बनिये बन गये ।
निज उद्यता को भूलकर लघुकार्य में ही सन गए इसके न उसके अब रहे होना पतन सो हो चुका।
भारत् भि अब तो जग उठा है सोनुका सा
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