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________________ २] महावीर प्राग्बाद इसी कारण कहाये अंबिका के भक्त वे । राजा प्रजा के प्रिय सदा कर्त्तव्य में अनुरक्त वे ॥ जब अंबिका का यह वे सब कर रहे थे एकदा । दैवात् स्वयंप्रभ सूरि लाकर टल गई वह आपदा ॥ ४ ॥ उपदेश रसको पानकर प्राम्म्राट् सभी जैनी हुए । जो मूक प्रश्झ के अत्र थे वे प्राणधन दानी हुए || कुछ काल के पश्चात् फिर श्रीमाल महिमा घट गई । aartaarater नगर की आपही से बढ़ गई ॥ ५ ॥ - पुरजब वहां के करगए प्रस्थान नाना स्थान में । प्राग्वाद भी जाकर बसे अन्यत्र हिन्दुस्थान में ॥ गुजरात जांगल में तथा पद्मावती में जा रहे | तबसे उसी स्थळ नाम से अबतक भि जाने जारहे || ६ || उस काल में सम्बुच्ध के साधन नहीं थे आज से । तब बन गई वे ज्ञातियां उनकी जहां जो जा बसे । इतना हुआ वो भी रहे प्रखाद उन्नत सर्वदा | ध्रुव धीर बुद्धीमान वे सम्मान पाते थे सदा ॥ ७ ॥ गुर्जरपती का मंत्रिपद प्रावाट ही के पास था । छक्ष्मी सरस्वती कीर्ति का इनके यहां पर बास था || महामंत्री मुंजाल को यूनान भी था जानता । ब्रह कौन था जो इंडि उनके हाथ की नहीं मानता ॥ ८ ॥ मंत्री विमलसा वीर, लक्ष्मी पुत्र, प्रेमी धर्म का । 3.1.1 सानी न था सेनापती में तेज़ वस्तूपाल का || हैं भाबु के अनुपम् जिनालय गा रहे महिमा यही ! बस शिल्प के ऐसे नमूने पृथ्स में हैं नहीं ॥ ६ ॥ थे राणपुर के भव्य मंदिर के विधाता पौरवाड़ । इनके जिनालय से भट्टा है गोडवाड़ा मारवाड़ || जिनतीर्थं खाली है नहीं इस ज्ञाति के मौदार्य से । इतिहास भी खाली नहीं इस जाति के सत्कार्य से ॥ १० ॥
SR No.541501
Book TitleMahavir 1933 04 to 07 Varsh 01 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC P Singhi and Others
PublisherAkhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
Publication Year1933
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Mahavir, & India
File Size18 MB
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