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महावीर
प्राग्बाद इसी कारण कहाये अंबिका के भक्त वे ।
राजा प्रजा के प्रिय सदा कर्त्तव्य में अनुरक्त वे ॥ जब अंबिका का यह वे सब कर रहे थे एकदा ।
दैवात् स्वयंप्रभ सूरि लाकर टल गई वह आपदा ॥ ४ ॥ उपदेश रसको पानकर प्राम्म्राट् सभी जैनी हुए ।
जो मूक प्रश्झ के अत्र थे वे प्राणधन दानी हुए || कुछ काल के पश्चात् फिर श्रीमाल महिमा घट गई ।
aartaarater नगर की आपही से बढ़ गई ॥ ५ ॥ - पुरजब वहां के करगए प्रस्थान नाना स्थान में ।
प्राग्वाद भी जाकर बसे अन्यत्र हिन्दुस्थान में ॥ गुजरात जांगल में तथा पद्मावती में जा रहे |
तबसे उसी स्थळ नाम से अबतक भि जाने जारहे || ६ || उस काल में सम्बुच्ध के साधन नहीं थे आज से ।
तब बन गई वे ज्ञातियां उनकी जहां जो जा बसे । इतना हुआ वो भी रहे प्रखाद उन्नत सर्वदा |
ध्रुव धीर बुद्धीमान वे सम्मान पाते थे सदा ॥ ७ ॥ गुर्जरपती का मंत्रिपद प्रावाट ही के पास था ।
छक्ष्मी सरस्वती कीर्ति का इनके यहां पर बास था || महामंत्री मुंजाल को यूनान भी था जानता । ब्रह कौन था जो इंडि उनके हाथ की नहीं मानता ॥ ८ ॥ मंत्री विमलसा वीर, लक्ष्मी पुत्र, प्रेमी धर्म का ।
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सानी न था सेनापती में तेज़ वस्तूपाल का || हैं भाबु के अनुपम् जिनालय गा रहे महिमा यही !
बस शिल्प के ऐसे नमूने पृथ्स में हैं नहीं ॥ ६ ॥ थे राणपुर के भव्य मंदिर के विधाता पौरवाड़ ।
इनके जिनालय से भट्टा है गोडवाड़ा मारवाड़ ||
जिनतीर्थं खाली है नहीं इस ज्ञाति के मौदार्य से ।
इतिहास भी खाली नहीं इस जाति के सत्कार्य से ॥ १० ॥