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महावीर
२८] लिखा है किमित्वा मार्नु भोजराजे प्रयाते,
श्री मुजेऽपि स्वर्ग साम्राज्यभाजि । एकः सम्प्रत्यर्थिना वस्तुपाल,
निष्ट त्यच स्पन्द निष्कन्दनाय ।। पुरा पादेन दैत्पारे भुर्वनोपरि वर्तिना,
__अधुना वस्तुपालस्य हस्ते नाधः कृतो बलिः॥ इस प्रकार उन महापुरुषों की महिमा का वर्णन किया है।
तदनन्तर भी अनेक महानुमाव भक्त हुए जिन्होंने अनेक जीर्णोद्धार एवं धर्म भावना से अपने तन, मन और धन को फलार्थ किया । यवन साम्राज्य का अधिकाधिक उत्कर्ष और धर्म खण्डन मन्दिरों त्याटन आदि कार्य मध्य काल में होते रहे तथापि महान् दुःखों को सहन करके धर्म प्राण जीवों ने अपने अपने धर्म की रक्षा की और यवनों के प्रबल आक्रमण एवं भय से इधर उधर जाना परस्पर भोजन व्यवहार, कन्या व्यवहार बन्द होगए। एवं कालान्तर से व्यवहार और रुढ़ियों ने अनेक प्रकार के रुपान्तरों को ग्रहण किया ।
यद्यपि और देशों में विद्या बुद्धि का विशेष प्रचार होने से तथा उन लोगों ने देश काल की गति को समझ लिया है और समयानुसार अपने २ व्यवहारों में सुधार कर लिये हैं जो मध्य काल में यवनों के आक्रमण से छिन्न भिन्न होगये थे। हमारा यह मारवाड़ देश अभी सब बातों में पीछे है और विद्या बुद्धि के किश्चित् प्रभाव से समय की गति को नहीं समझ सकता और अनेक कुरूढियों को ग्रहण करके "तातस्य कूपोऽय मिति जवाणा चारं जलं का पुरुषापिवन्ति" इस उक्ति के अनुसार लकीर का फकीर ही होरहा है। किन्तु हमारे कितने एक पठित एवं व्यवहार चतुर पौरवाल महाजन भाइयों ने समस्त भारत के पौरवालों को इस देश में आमन्त्रण देकर अपने उद्देशों को समस्त जातिजनों के समक्ष रख कर उनकी सहमति एवं भाज्ञा से उनमें परिवर्तन करने का एवं धर्म भावना को जागृत करने का यह एक भगीरथ प्रयत्न उठाया है, जो अत्यन्त ही प्रशंसनीय