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________________ '४-पु. 3 छुटकारा हो सकता है, इसने अभिग्रह किया कि खाने व कपड़े के अलावा जो बचे सो देवद्रव्य में देऊँगा । इस तरह से अभिप्रह लेकर व्यापार धंधा करने लगा, थोड़े टाईम में (सवा क्रोड) याने दस लाख कांकणी जितना धन देवद्रव्य में दिया. देवद्रव्य के ऋण से मुक्त हुआ बाद में बहुत सा धन प्राप्त करके अपने गाम में आया और एक महान् धनाढ्य बना अपने बनवाये हुवे, दूसरों के बनवाये हुए मन्दिरों में पूजा प्रभावना करते हुए ज्ञानादि द्रव्य की वृद्धि करते हुए देवदव्य का रक्षण करते हुए उसकी वृद्धि करते हुए तीर्थङ्कर नाम कर्म की निकाचना करके अन्त में दीक्षा लेकर सर्वार्थ सिद्धि को प्राप्त करके मनुष्य होकर तीर्थङ्कर की ऋद्धि भोगकर अन्त में मोक्षमें गया। श्री चन्द्रकुमार का दृष्टान्त श्री कुशस्थल नाम के नगर मे प्रतापसिंह नाम का राजा था। उसकी सूर्यवती नाम की राणी थी उनके चन्द्रकुमार नामक कुमार था। कुमार मिथ्यादृष्टी, भ्रष्टाचारी और निन्दित कुल वाले पुरुषों की सोबत से अलग था, परोपकार में तत्पर सीभाग्यवान श्री अरिहंत के भक्त विशेष को जानने वाला न्याय धर्म की वृद्धि और दानादि धर्म में तत्पर वह चन्द्रकला वगैरा स्त्रियों के भाथ सुख भोगता हुआ रहता है। ... एक वक्त अपने भाग्य को परीक्षा करने को पिता की आज्ञा लिये बिना ही देशांतर में निकल गया। वहां किसी बनमें मदनसुन्दरी नाम की कन्या से लग्न करके अनुक्रम से सिद्धपुर में आया । वहां श्री ऋषभप्रभुके दर्शन करने को गया. वहां के नगर के लोगों को शोभा रहित मुखवाले देखे तथा निर्धन अवस्था वाले देखे तब अपनी बुद्धि से विचार किया कि इन लोगों ने देवद्रव्य का नाश किया होना चाहिये. बाद में कुमार ने पूजारी से पूछा तो वह बोला कि आपका अनुमान ठीक है ।
SR No.540004
Book TitleAgam Jyot 1969 Varsh 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgmoddharak Jain Granthmala
PublisherAgmoddharak Jain Granthmala
Publication Year1969
Total Pages340
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Agam Jyot, & India
File Size23 MB
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