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कर दिया है कि अब वह जैनधर्म जैसा दिखता ही नहीं है।
कुछ जैन संत अपने हीन आचरण के कारण जैनधर्म को नष्ट करने में अपना भरपूर योगदान दे रहे हैं। जैन विद्वान् व समाज इस पर मौन है। जैन समाज तो नादान है, लेकिन जैन विद्वानों का इन विषयों पर चुप्पी साधना खलता है। कुछ विद्वान् धन के लोभ के कारण अपना मुँह बन्द रखते हैं। कुछ विद्वान् जो धन के लोभी नहीं भी हैं वे अपनी जाति के मतों की जैनधर्म के विपरीत क्रियाओं को भी जाति व्यामोह के कारण उचित ठहराने लगते हैं। महंगे धार्मिक आयोजनों को तो सभी विद्वानों ने उचित मानना शुरु कर दिया है, जितना अधिक महंगा आयोजन, उतनी अधिक प्रभावना और इतनी ही अधिक दक्षिणा, यह एक सूत्र - मंत्र बनता जा रहा है। ऐसे आयोजनों में कितना आरंभ हो रहा इस पर कोई विचार नहीं करता। जब ऐसे मामलों में विद्वान् लोग ही चुप रहेंगे तो आमजन जैनधर्म से विमुख होगा ही।
ANEKANTA ISSN 0974-8768
कुछ संत अपने उच्च आचरण द्वारा जैनधर्म की प्रभावना कर रहे हैं। जैन व जैनेतर सभी को अहिंसा का मार्ग प्रदर्शित भी कर रहे हैं, लेकिन वे भी जैनधर्म की उन्नति में अधिक कार्यकारी सिद्ध नहीं हो पा रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि ऐसे संत बहुत कम हैं और उनके प्रयास बड़े-बड़े आयोजनों रूपी नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गये हैं। एक दूसरी बात यह भी है कि इससे नये जैन बन नहीं पा रहे हैं और यदि कोई बनना भी चाहे तो जैन समाज उन्हें अपने में सम्मिलित करने में कोई उत्साह नहीं दिखाता है।
अब कुछ अपने तीर्थों की स्थिति के बारे में भी चर्चा कर लेना उचित होगा। हम सभी जानते हैं कि हमारे प्राचीन तीर्थों पर जैनेतर लोगों की कुदृष्टि हमेशा से ही रही है। वर्तमान में ऐसा लगता है कि भारत की बहुसंख्यक समाज योजनाबद्ध तरीके से हमारे तीर्थों को हड़पने में लगी हुई है। हमारे देखते-देखते गिरनार तीर्थ जैनों के हाथों से निकल सा गया है। अब शिखरजी तथा पालीताना जैसे तीर्थों पर भी उनकी कुदृष्टि है। सरकारों से कोई भी मदद नहीं मिलती है। सरकारें प्रायः अपने वोट पाने के कारण हमेशा बहुसंख्यक वर्ग का ही साथ देती हैं। इसी कारण