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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019
मत कीजो जी यारी, यह भोग भुजंग सम जान के
भुजंग डसत एक बार नसत हैं, ये अनन्त मृतुकारी, विसना,-तृपा बढे इन सेपे, ज्यो पीवे जल खारी। मत..
रोग, वियोग शोक बन को धन. समता लता कठारी. केहरि, फरी-अरी न देस ज्यों, त्यों ये दें दुख भारी। मत..
इनसे रचे देव तरू थाये, पयो शुभ्र मुरारी, जे विरचे ते सुरपति अरचे, परचे सुख अधिकारी। मत..
परधीन धिन मांहि छीन हैं, पाप बंध करतारी, इन्हें गिने सुख आक मांहि सिन, आम्र तनी बुधिधारी। मत..
मीन मतंग, पंतग, भृग नृप, इन वश भये दुखारी, सेवत ज्यों किंपाक ललित, परिपाक समय दुखकारी। मत..
सुरपति, नगपति, खरपति हू की, भोग न आस निवारी, "दौल" त्याग अब भज विराज सुख, ज्यो पावे शिवनारी। मत..
-पं. दौलतराम जी