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________________ 35 अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019 अंगोपांगों की संधियाँ भिद जाती हैं, उसी प्रकार कायोत्सर्ग से कर्मरूपी धूली भी आत्मा से पृथक् हो जाती है। कायोत्सर्ग करने वाला साधक कायबल और आत्मशक्ति का आश्रय करके क्षेत्र, काल और स्वसंहनन इनके बल की अपेक्षा कर कायोत्सर्ग में कहे गये दोषों का त्याग करता हुआ इसमें प्रवृत्त हो। ऐसा करने पर साधक को अतिचार का दोष नहीं लगेगा। अतिचार के संदर्भ में आचार्य कहते हैं कि अपनी शक्ति और आत्मबल के अनुसार ही कायोत्सर्ग करना चाहिए। जो साधक अपनी सामर्थ्य को छिपाता है, उसे मायाचार का दोष लगता है। इस प्रकार मोक्ष सुख प्रदान कराने में समर्थ कारण होने से कायोत्सर्ग का महत्त्व स्वतः सिद्ध है, क्योंकि मोक्ष ही प्रत्येक साधक का अन्तिम लक्ष्य है और साधना की पूर्णता भी मोक्ष में ही है। संदर्भ1. नियमसार, गाथा 121 2. देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि। जिणगुण चिंतणजुत्तो काओसग्गो तणुविसग्गो।। मूलाचार, गाथा 28, राजवार्तिक, 6/24/11/530/14, भगवती आराधाना, 6/32/21, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 467-68। 3. कायोत्सर्ग प्रकरण, गाथा 1-2 4. कायोत्सर्ग प्रकरण, गाथा 3 5. मूलाचार, गाथा 673, भगवती आराधना, 116/278/27 6. कायोत्सर्ग प्रकरण, गाथा 10-11 7. मूलाचार, गाथा 674, कायोत्सर्ग प्रकरण, गाथा 30 8. कायोत्सर्ग प्रकरण, गाथा 31 9. मूलाचार, गाथा 674 तथा कायोत्सर्ग प्रकरण, गाथा 33-34 10. मूलाचार, गाथा 675 तथा कायोत्सर्ग प्रकरण, गाथा 40 11. मूलाचार, गाथा 676 तथा कायोत्सर्ग प्रकरण, गाथा 41 12. कायोत्सर्ग प्रकरण, गाथा 42 13. मूलाचार, गाथा 677 तथा कायोत्सर्ग प्रकरण, गाथा 43 14. मूलाचार, गाथा 650, 655, 664 15. अनगार धर्मामृत, 9/22-24
SR No.538072
Book TitleAnekant 2019 Book 72 Ank 07 to 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2019
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size2 MB
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