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________________ अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 ही आर्हत दर्शन नास्ति मानता है किन्तु ऐसा कदापि नहीं है क्योंकि जो अस्ति है वही अस्ति है, जो नास्ति है; वही नास्ति है; अस्तिः नास्ति नहीं है नास्तिः अस्ति नहीं है। अतः यह स्याद्वाद का सिद्धान्त स्ववचनबाधित नहीं है इसी बिन्दु को इंगित कर आचार्य योगीन्द्रसागर जी कहते हैं अस्तित्व नास्तित्व मिथश्च तथैव वाच्यम् वीरेण पूर्व विहिता परीक्ष्या। अस्तीह सर्व च तथैव नास्ति, यथा यदास्ते च तथैव वाच्यम्॥३१॥ इस श्लोक से पूर्व आचार्य श्री जिस उदाहरण के द्वारा जीव द्रव्य में एकत्व तथा अनेकत्व की सिद्धि करते हैं उसके पाठ करने पर भगवत् गीता का वह श्लोक सहज ही समक्ष में उपस्थित हो उठता है जहाँ लोकनायक श्रीकृष्ण स्वयं को ही एक रूप तथा स्वयं को ही अनेक रूप में कहते हैं। दोनों ही श्लोकों की साम्यता अद्भुत् है द्रव्येषु सिद्धा च मतैक तेयम्, अनेकता तत्र च वर्तमाना। द्रव्यस्य दृष्ट्या त्वहमेक एवं, अनेक रूपो झुपयोग दृष्ट्या॥३०॥ (विभज्यवाद) भारतीय दर्शन में अनेकान्तवाद का उपदेश एक विलक्षण कथन है क्योंकि यह अन्य दर्शनों के मिश्रण का प्रतिफल नहीं है अपितु उनका परिष्कृत रूप है। इसे इस उदाहरण से सरलतया समझा जा सकता है जहाँ जौहरी; काँच के गन्दे टुकड़े समझ कर बच्चों द्वारा फेंके गये कीमती रत्नों को यथोचित तरासकर सदुपयोग करता है उसी प्रकार अन्य दूषित नेत्रों से दोषयुक्त समझे गये वस्तुधर्म को निर्दोष नेत्रों से देखकर स्याद्वाद का स्वरूप सदुपयोग में लिया जाता है। ग्रन्थ के मंगलाचरण में जहाँ उपाध्याय परमेष्ठी का स्मरणपूर्वक स्तवन है वहाँ 'सिद्धान्तपार प्रदम्" विशेषण का प्रयोग है; यह विशेषण देखने में जितना सरल है उसमें उतनी ही गम्भीर भी है। क्योंकि जब सामान्य ज्ञानधारी को सिद्धान्त में विरोधाभास दिखता है तब स्याद्वाद का दृष्टिकोण ही उन विरोधी धर्मों में सामंजस्य की लौ जलाता है।
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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