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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 उपस्थिति तथा नवीन-कार्योत्पत्ति मानते हैं वे सर्वथा गलत हैं। प्रयोजन रहित कोई भी कार्य संसार में दृष्टिगत नहीं होता। अतः प्रयोजन (कारण)
का निषेध करना अनुचित और बेबुनियाद है। इसके संदर्भ में ग्रन्थ में लिखा है -
केचिज्जगन्निर्वचनीयमेतत् नास्त्येव सदसत् कदापि नैव॥ अन्य तथाऽर्वचनीयमास्ते, सम्भाव्यते लक्षणरूपमस्य॥१६॥
गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो सम्पूर्ण स्याद्वाद के सिद्धान्त का सार अपेक्षापूर्वक कथन करना है किन्तु जितना सरल, सहज यह मन्त्र है उतना ही प्राणवायुवत् इसका प्रयोग सर्वत्र अनिवार्य है और इस तथ्य के नकारने पर वस्तु-व्यवस्था का विनाश होता है। जब तक एकान्तवाद का दुराग्रह नहीं छूटता, तब तक तत्त्व का पूर्ण बोध नहीं हो सकता क्योंकि एकान्तवाद में किसी वस्तु के एक धर्म को सर्वथा मिथ्या मानने से वस्तु की पूर्णता खण्डित होती है, क्योंकि कहा भी है:दुराग्रहं नैव जहाति यावत्, तावन्न तत्त्वस्य च पूर्णबोधः॥ एकस्य धर्मस्य च सत्यमान-मसत्यमन्यस्य मतं न मान्यम्॥२३॥
इस कृति में आचार्यश्री ने नवीन चिन्तन प्रस्तुत किया है कि जिस वस्तु में विरोधी धर्मों का साहचर्य विद्वानों को रुचिकर नहीं है वे विरोधी धर्म उस वस्तु अथवा पदार्थ द्वारा सहज ही स्वीकार किये जाते हैं' इसको और विस्तार से समझे तो प्रतिध्वनित होता है कि ज्ञान का विषय ज्ञेय है तथा ज्ञेय का बोध चेतन को होता है किन्तु मिथ्या मान्यताओं से बद्ध चेतन द्रव्य जिस विरोधी धर्मयुक्त तथ्य को अज्ञानतावश अस्वीकारता है उसी विरोधी धर्मयुक्त तथ्य को ज्ञेय गुण से रहित अचेतन द्रव्य स्वयं में आश्रय प्रदान करता है।
विविध लाञ्छनों का परिष्कार करते हुए आचार्यश्री कहते हैं कि जिस द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के आधार पर अस्तित्व की सिद्धि होती है यदि उसी को आधार करके नास्तिक की भी सिद्धि हो तो परस्पर व्याघात दोष होता है किन्तु आर्हत दर्शन में पदार्थ (वस्तु) के विविध गुणों के अनेक पक्षों को विभिन्न उपायों से स्पष्ट किया गया है जिसमें दोष मानना असंगत है। साधारणतः विद्वत्वर्ग की मान्यता यह है कि जो अस्ति है उसे