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________________ अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 घटः' में एव शब्द स्पष्ट करता है कि किसी अपेक्षा से ही यह घडा है। स्याद्वाद समग्र रूप में अनेकान्त है और प्रत्येक भंग की दृष्टि से सम्यक् एकान्त है। सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त में वैसे ही अन्तर है जैसे इन्जेक्शन का वैद्य के हाथ में या अबोध बालक के हाथ में होना अर्थात् वस्तु तो सर्वथा सम्यक् है परन्तु उसका सम्यक्त्व प्रयोग कर्ता पर आधारित है। इन रचनाकारों ने इन्हीं विविध आत्मकल्याणकारी तथ्यों की खोज करके मानव किंवा जीवमात्र का कल्याण किया है। यहाँ जीवमात्र कहने का प्रयोजन यह है कि संसार में भटक रहे क्षुद्रतम जीव से लेकर सर्व सुविधा सम्पन्न मनुष्य में कोई अन्तर नहीं है। सभी को सामान्यरूप से दुःख कष्टकर तथा भोग सुखप्रद लगते हैं तथा ये सभी विवेक शून्य होकर संसार में किंकर्तव्यविमूढ़ भटकते हैं। इन्हीं जीवों को केन्द्र में रखकर समस्त जैन साहित्य स्रजित हुआ है। लेखक ने अन्य दर्शनों की जो तत्त्व विषयक मान्यतायें हैं उनका पूर्वपक्ष के रूप में कथन करके, उन-उन दर्शनों की त्रुटिपूर्ण दृष्टि को 'स्यात्' शब्द से परिमार्जित कर प्रस्तुत किया है। चूंकि जब ‘स्यात्' शब्द कथन के साथ जुड़ता है तो वह वस्तु अथवा प्रश्न से सम्बन्धित अन्य पक्षों जिनका प्रसंग प्रश्नकर्ता ने प्रस्तुत किया है अथवा नहीं किया है उनकी रक्षा करता है जबकि अन्य दार्शनिक चिन्तकों की वाक्यविन्यास पद्धति प्रश्नगत अन्य पक्षों की रक्षा नहीं करती प्रतीत होती है। विभज्यवाद का उल्लेख करते हुए आचार्य योगीन्द्रसागरजी कहते हैं विभज्यवादोऽपि च नाम मान्यम्, यया च दृष्टयोत्तरणीयमास्ते॥ तया समाधान-विधानकार्यम्, स्याद्वादरूपं प्रवदन्ति विज्ञाः॥१०॥ (विभज्यवाद) उपर्युक्त श्लोक का हार्द यह है कि जिस अपेक्षा से प्रश्न प्रस्तुत हुआ है उसी अपेक्षा अथवा भावना को जानकर उसका उत्तर देना स्याद्वाद है। अगला प्रश्न यह है कि इस भावना की रक्षा करने की आवश्यकता क्यों है; इसका स्पष्टीकरण अगले श्लोक में दिया है कि एक ही प्रश्न के एकाधिक उत्तर हो सकते हैं किन्तु जिस भाव से प्रश्न उपस्थित हुआ है
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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