SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 बुद्धिगम्य है और इसी दृष्टि को स्याद्वाद, सापेक्षवाद या विभज्यवाद कहते हैं। स्याद्वाद की आवश्यकता को न समझने के फलस्वरूप ही जगत् में विषमता को बढ़ावा मिल रहा है। अतः एकान्त की यह कमी है कि एक समय में एक ही विषय को एकान्त से प्रस्तुत करके अन्य को स्वयं का विरोधी बना लेता है। उसके निवारणार्थ विभज्यवाद की उपयोगिता कालिक सार्थक है। यह एक श्लोक ग्रन्थ के महत्त्व को प्रमाणित करता है। 78 स्याद्वाद का अल्प प्रसिद्ध नाम विभज्यवाद है। यद्यपि दिगम्बर साहित्य में यह शब्द दृष्टिगोचर नहीं हुआ है किन्तु श्वेताम्बर साहित्य में सूत्रकृतांग के अन्तर्गत इसका प्रयोग मिलता है। पं. दलसुखभाई मालवणियाजी की पुस्तक 'आगम-युग का जैन दर्शन' में विभज्यवाद का उल्लेख मिलता है। यथा विभज्यवाद शब्द बौद्ध तथा जैन- परम्परा में एक साथ प्रारंभ हुआ किन्तु बौद्धों की पश्चात्वर्ती परम्परा धारा ने एकांश अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया तथा आर्हत-परम्परा में इसका अनेकान्तिक अर्थ में प्रयोग किया। विभज्यवाद, सापेक्ष कथन और अनेकान्तवाद ये सब समानार्थ है। मालवणियाजी कहते हैं- इस विभज्यवाद का मूलाधार 'विभाग करके उत्तर देना', ......। वास्तविकता यह है कि दो विरोधी बातों को एक सामान्य वस्तु में स्वीकार करके उसी को विभक्त करके दोनों विभागों में दो विरोधी धर्मों को संगत बताना विभज्यवाद है। स्यात् शब्द के अर्थ के विषय में अज्ञानता है, वह स्यात् को तिङ्न्त पद मानने के कारण है परन्तु उसे निपात या अव्यय मानने से उसका समाधान हो जाता है। आ. समन्तभद्र, आ. अमृतचन्द, आ. मल्लिषेण ने स्यात् शब्द को अव्यय या निपात स्वीकारा है। पञ्चास्तिकाय की टीका में आ. अमृतचन्द कहते हैं 'स्यात् ' एकान्तता या निषेधक, अनेकान्तता का प्रतिपादक तथा कथञ्चित अर्थ का द्योतक; एक निपात शब्द है।" स्याद्वाद मंजरी में भी यही कथन है। अतः स्यात् संशयपरक न होकर निश्चयार्थक प्रयोग है । 'स्याद्वाद एवं सप्तभंगी' की भूमिका में प्रो. सागरमल जी ने 'एव' शब्द का औचित्य दर्शाया है अर्थात् 'स्यादस्त्येव
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy