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________________ अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 1. अपनी प्रशंसा व अन्य की निन्दा करना। 2. अनेक कष्टों से धन संग्रह किया उसे विवाहादि कार्यों में खर्च करना। 3. कोई सम्मान न करे तो उसे भय दिखाकर सम्मान करवाना। 4. जब कोई उसका सम्मान नहीं करता है तो वह अपना घाटा तक कर लेता है। आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक-25 में मान के आठ भेद बताते हैं 'ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धि तपो वपुः। अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः॥' ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप शरीर इन आठ वस्तुओं के आश्रय से जो मद या घमण्ड किया जाता है उसे मान कहा है। अर्थात् जैसे क्रोध, किसी न किसी के आश्रित होता है, उसी प्रकार मान भी किसी न किसी वस्तु के आश्रित होता है और जिस वस्तु के आश्रित मान होता है उसे आचार्य ने आठ भागों में बाँटा है। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा-285 में कहा गया है कि मान के उदय से अधोगति की प्राप्ति होती है। मान कषाय का अभाव मानवीय मूल्यों के आधार से होोत है। 1. स्व-पर का ज्ञान होने पर हम मान कषाय से बच सकते हैं जैसे हम किराये के घर पर रहते है। लेकिन कभी अभिमान नही करते कि यह हमारा घर है। 2. सब जीवों का सामान्य स्वरूप विचार करने पर, जीव दूसरे जीव के प्रति अपमान का विचार भी नहीं करता है। 3. स्वभाव विचार करने पर मान नहीं होता परन्तु तत्कालीन वस्तु को देखने पर मान होता है। छोटा बड़ा दिखाई देता है। 4. पर्याय की क्षणभंगुरता पर विचार करने पर मान उत्पन्न नहीं होता है। जैसे- 'कहां गये चक्री जिन जीता भरत खण्ड सारा'। 5. मानियों के चरित्र का विचार करने पर मान नहीं होता- जैसे- रावण सिकन्दर आदि। दूसरी तरफ विचार करें तो पाते हैं कि मानी मान करते हुए भी
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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