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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 कैसे जाना और ग्रहण किया जाए तो समयसार में कहा गया है
कह सो घिप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु धिप्पदे अप्पा। जह पण्णाइ विभत्तो तह पण्णाएव घेत्तव्वो॥१०
आत्मा को प्रज्ञा से ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि प्रज्ञा से ही देह और आत्मा के भेद को जाना जाता है और प्रज्ञा से ही आत्मा को ग्रहण किया जाता है। कही-सुनी बात की बजाय अपनी प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा करनी चाहिये। इस सम्बन्ध में उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है- पण्णा समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छयं- धर्म, तत्त्व तथा तत्त्व का निश्चय प्रज्ञा से होता है, इसलिए प्रज्ञा से इनकी समीक्षा करनी चाहिये तथा प्रज्ञा से ही इन्हें जानकर ग्रहण करना चाहिये। बुद्धि से सीमित ज्ञान होता है और प्रज्ञा से असीमित ज्ञान होता है। बुद्धि की पहुँच शरीर और पुद्गलों तक ही हो पाती है। प्रज्ञा की पहुँच आत्मा और आत्मानुभव तक होती है। इसलिए प्रज्ञा से धर्म और धर्म-तत्त्व को जानने का उपदेश दिया गया है। अहंकारशून्य जीवन :
जैन दर्शन कहता है कि हर आत्मा अपने निजी सामर्थ्य (उपादान) तथा पुरुषार्थ से अपना विकास करता है, दूसरा तो निमित्त मात्र बनता है, अतः किसी की प्रगति में अहंकार का कोई मूल्य नहीं है। कर्तत्व का भाव व्यक्ति में अहंकार पैदा करता है। 'मैंने यह अद्भुत कार्य किया। ऐसा कार्य किया कि दूसरा कोई नहीं कर सकता। मैं ऐसा करूँगा, वैसा करूँगा।' समयसार नाटक में कहा गया है कि अहंकारी के ऐसे भाव विपरीत भाव हैं। किसी भी प्रकार के तीव्र अहंकारमय या कषायभाव सम्यक्त्व दशा के सूचक नहीं है। सच्चे ज्ञानी को कुछ करने का ऐसा अहंकार नहीं करना चाहिये। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि यदि ज्ञानी व्यक्ति घड़ा, कपड़ा आदि द्रव्यों को बनाए तथा विभिन्न संयोजजनित क्रियाएँ करें तो उसे उन परद्रव्यों के रूप में परिवर्तित होना पडेगा। क्योंकि कर्ता होने की शर्त यह है कि उसे उस रूप में परिवर्तित होना अनिवार्य है। ऐसा होने पर ज्ञानी की स्वतंत्रता छिन जायेगी। वह ज्ञानी नहीं, अज्ञानी और पराधीन की श्रेणी में माना जायेगा। पारिवारिक और सामदायिक जीवन में भी नम्रता निरहंकारिता का बहत मुल्य है। व्यक्ति यदि अहंकार