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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 दिया जाता है। अनासक्त व्यक्ति कर्मफलों को समभाव से भोगता है। वह कर्मफल भोगने की कला को जान लेता है। वह कष्टों और कठिनाईयों में भी अविचलित तथा सकारात्मक बना रहता है। अनासक्ति से व्यक्ति निष्पक्ष, समदर्शी और सुखी बनता है। निष्पक्षता और समदर्शिता से सर्वत्र विश्वास और प्रतिष्ठा मिलती है। अनासक्त व्यक्ति जीवन में किसी भी सेवा-कार्य के प्रति घणा नहीं करता है। वह दसरों की भलाई के कार्यों को गुप्त रखता है। उन्हें उजागर करके वह दूसरों को लघुता का अनुभव नहीं कराता है। इस प्रकार अनासक्ति से जीवन में विवेक का जागरण और शान्ति की प्राप्ति होती है।
अनासक्ति व्यक्ति वस्तुओं का उपयोग करते हुए भी उपयोग नहीं करता है और आसक्त व्यक्ति वस्तुओं का उपयोग नहीं करते हुए भी उपयोग करता है और आत्मशान्ति प्राप्त नहीं कर पाता है। समयसार में कहा गया है -
सेवंतो वि ण सेवदि असेवमाणो वि सेवगो को वि। पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होदि।'
सुखों के लिए वस्तुओं को उपयोग में लाते हुए भी अनासक्ति के कारण कोई व्यक्ति तो उन पर आश्रित नहीं होता है और परम शान्ति प्राप्त कर लेता है। किन्तु उनको उपयोग में न लाते हुए भी कोई व्यक्ति आसक्ति के कारण उन पर आश्रित रहता है और परम शान्ति प्राप्त नहीं कर पाता है। यह स्थिति ठीक ही है। किसी के लिए किये गये श्रेष्ठ कार्य के प्रयास के कारण भी आसक्ति के कारण वह व्यक्ति उस श्रेष्ठ कार्य से दृढ़ रूप से संबन्धित नहीं होता है। अतः कहा जा सकता है कि आसक्ति के कारण ही वस्तुओं से सम्बन्ध जुड़ता है, जीव के कर्मबंधन होता है और उसमें अशांति पैदा होती है। आचार्य कुन्दकुन्द फिर कहते हैं- ण हि वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्ति – वास्तव में बंध वस्तुओं से नहीं, अपितु आसक्तिपूर्ण विचार से होता है। भले ही वस्तुओं के कारण से ऐसा आसक्तिपूर्ण विचार होता हो, लेकिन बंध का कारण वस्तु नहीं, आसक्तिपूर्व विचार है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि जिस कारण या निमित्त से आसक्तिपूर्ण विचार पैदा होता है, सुख-शान्ति के लिए उन कारणों को दूर करना या उन कारणों से दूर रहना भी हितकर है।