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________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 83 मुख्य लक्ष्य यही रहा कि परम तत्व का सत्ता के संबन्ध में शाश्वतवाद, उच्छेदवाद जैसी परस्पर विरोधी विचारधाराओं में से किसी को स्वीकार नहीं करना। त्रिपिटक में ऐसे अनेक संदर्भ हैं, जहां भगवान बुद्ध ने एकान्तवाद का निरसन किया है। जब उनसे पूछा गया क्या आत्मा और शरीर अभिन्न है? वे कहते हैं कि मैं ऐसा कहता, फिर जब यह पूछा गया क्या आत्मा और शरीर भिन्नाभिन्न है, उन्होंने कहा मैं ऐसा भी नहीं कहता हूँ। पुनः जब यह पूछा गया कि आत्मा और शरीर अभिन्न है तो उन्होंने कहा कि मैं ऐसा भी नहीं कहता हूँ। जब उनसे यह पूछा गया कि गृहस्थ आराधक होता है या प्रव्रजित? तो उन्होंने अनेकान्त शैली में कहा कि यदि गृहस्थ और अत्यागी मिथ्यावादी हैं तो वे आराधक नहीं हो सकते हैं (मज्झिमनिकाय 19) इसी प्रकार जब महावीर से जयंती ने पूछा, भगवान् सोना अच्छा है या जागना? तो उन्होंने कहा कुछ का सोना अच्छा है और कुछ का जागना। पापी का सोना अच्छा है और धर्मात्मा का जागना। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रारंभिक बौद्धधर्म एवं जैनधर्म में एकान्तवाद का निरसन और विभज्यवाद के रूप में अनेकान्तदृष्टि का समर्थन देखा जाता स्याद्वाद और शून्यवाद : यदि बुद्ध और महावीर के दृष्टिकोण में कोई अंतर देखा जाता है तो वह यही कि बुद्ध ने एकान्तवाद के निरसन पर अधिक बल दिया। उन्होंने या तो मौन रहकर या फिर विभज्यवाद की शैली को अपनाकर एकान्तवाद से बचने का प्रयास किया। बुद्ध की शैली प्रायः एकान्तवाद के निरसन या निषेधपरक रही, परिणामतः उनके दर्शन का विकास शून्यवाद में हुआ, जबकि महावीर की शैली विधानपरक रही। अतः उनके दर्शन का विकास अनेकान्त या स्याद्वाद में हुआ। इसी बात को प्रकारान्तर से माध्यमिक कारिका (2/3) में इस प्रकार भी कहा गया है - न सद् नासद् न सदासत् न चानुभयात्मकम्। चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिकाः विदु। अर्थात् परमतत्त्व न सत् है, न असत् है, न सत्-असत् है और न
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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