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________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 जैनधर्म की विश्वव्यापकता - डॉ. एन. सुरेश कुमार विश्व के मूल के बारे में चिन्तन करते हुए उसकी प्राचीनता की ओर सूक्ष्मता से दृष्टिपात करने पर इस विश्व का कर्मयुग के मूल पूर्वज धर्मनेता के पदचिह्न दृष्टिगोचर होते हैं। उसने कर्मयुग प्रारम्भ होते ही दिग्भ्रान्त हुए प्रजासमूह को आजीविका के उपाय असि (शस्त्र-अस्त्र आदि आयुधविद्या), मसि (लेखनकार्य), कृषि, वाणिज्य (व्यापार), विद्या (अंक व अक्षर आदि का अध्ययन व अध्यापन) और शिल्प (चित्र-मूर्ति-शिल्प विद्या) ये प्रमुख षट्कर्म बताये थे। अतएव प्रजाजन उसे प्रजापति, ब्रह्मा आदि नामों से सम्बोधित करते थे। इस विषय का आचार्य जिनसेन ने महापुराण तथा आदिकवि पम्प ने आदिपुराण ग्रंथ में वर्णन किया है। इसी भारतीय विचारधारा को वैदिक परम्परा के भागवतादि पौराणिक ग्रन्थों में भी कहा गया है। सर्वप्रथम प्रजापति ने इस विश्व को धर्म का मार्ग दिखाते हए संसार के बन्धनों से मुक्त होने हेतु मोक्षमार्ग का उपदेश दिया है। तब से उसे जैन-जैनेतर धर्मग्रन्थों में अरह, अरहन्त. अर्हन आदि नामों से अभिहित किया है। इस कर्मयुग में धर्म का प्रवर्तन करने वाला आदिपुरुष का नाम है वृषभ। इसे जैनधर्म में वृषभदेव, वृषभनाथ, ऋषभदेव आदि विशेष नामों से पुकारा गया है। प्रादेशिक इतिहास और भाषा को सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि यही वषभ अथवा ऋषभ नाम यहदी. क्रैस्त (जेसस्), इस्लाम आदि धर्मों में भिन्न-भिन्न परिवर्तित रूपों में उच्चारित किया जाता है। | धर्म में ऋषभ शब्द जहो अथवा यहोव के रूप में परिवर्तित है। ऋषभ शब्द में से ऋकार प्राकृत भाषा के व्याकरण के नियमानुसार अ, इ, उ और री होता है। अकार यकार में परिवर्तित हो जाता है और यही
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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