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________________ 10 अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 स्वामी समन्तभद्र ने “ततः स्वनिःश्रेयसभावनापरैर्बुधप्रवेकैर्जिनशीतलेड्यसे (स्व. 50)" इस वाक्य के द्वारा उन बुधजन - श्रेष्ठों तक के लिये वीतराग देव की पूजा को आवश्यक बतलाया है जो अपने निःश्रेयस की - आत्मविकास की-भावना में सदा सावधान रहते हैं और एक दूसरे पद्य ‘स्तुतिः स्तोतुः साधोः' (स्व. 116) में वीतरागदेव की इस पूजा - भक्ति को कुशलपरिणामों की हेतु बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्ग का सुलभ तथा स्वाधीन होना तक लिखा है। साथ ही, उसी स्तोत्रगत नीचे के एक पद्य में वे योगबल से आठों पापमलों को दूर करके संसार में न पाये जाने वाले ऐसे परमसौख्य को प्राप्त हुए सिद्धात्माओं को स्मरण करते हुए अपने लिये तद्रूप होने की स्पष्ट भावना भी करते हैं, जोकि वीतरागदेव की पूजा-उपासना का सच्चा है रूप : दुरितमलकलंकमष्टकं निरुपमयोगबलेन निर्दहन् । अभवदभव-सौख्यवान् भवान्भवतु ममापि भवोपशान्तये ॥ स्वामी समन्तभद्र के इन सब विचारों से यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि वीतरागदेव की उपासना क्यों की जाती है और उसका करना कितना अधिक आवश्यक 1 ****** लेखकों से अनुरोध आप सभी से अनुरोध है कि आप अपने हिन्दी के आलेख वाकमैन चाणक्य अथवा कृतिदेव फोन्ट में जिसका साइज 16 एवं अंग्रेजी के आलेख टाइम्स न्यू रोमन अथवा एरियल फोन्ट के साइज 12 में ही प्रेषित करें। आपका आलेख 8-10 पेज से ज्यादा नहीं होना चाहिए। आलेखों की सॉफ्ट कॉपी पीडीएफ फाइल के साथ आप वीर सेवा मन्दिर के ईमेल virsewa@gmail.com पर भेज सकते हैं। संपादक
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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