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________________ 90 अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 और/ इस विषय में खेद है / आँखें कुछ कहती नहीं/ किस शब्द का क्या अर्थ है, यह कोई अर्थ नहीं रखता अब ! / कला शब्द स्वयं कह रहा कि 'क' यानी आत्मा - सुख है / 'ला' यानी लाना - देता है कोई भी कला हो / कला मात्र से जीवन में सुख-शान्ति सम्पन्नता आती है/ न अर्थ में सुख है, न अर्थ से सुख 20 इसलिए जरूरी है कि 44 'अब धनसंग्रह नहीं, जनसंग्रह करो ! और लोभ के वशीभूत हो / अंधाधुन्ध संकलित का समुचित वितरण करो / अन्यथा / धनहीनों में चोरी के भाव जागते हैं, जागे हैं। 21 आचार्य श्री का स्पष्ट मानना है कि अतिधनसंचय की प्रवृत्ति के कारण चोरों का जन्म होता है। वे लिखते हैं कि चोर इतने पापी नहीं होते जितने कि चोरों को पैदा करने वाले । तुम स्वयं चोर हो चोरों को पालते हो और चोरों के जनक भी। आय-व्यय के बीच सन्तुलन - मानव जीवन में आय-व्यय का संतुलन हो तो सुखद स्थिति रहती है। मितव्ययिता बुरी नहीं है, किन्तु अपव्यय की प्रवृत्ति तो बुरी ही होती है। नीति भी कहती है कि "आमदनी कम, खर्चा ज्यादा, यह आदत है मिटने की ताकत कम और गुस्सा ज्यादा, यह आदत है पिटने की।। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने 'मूकमाटी' में बढ़ते भौतिकवाद के बीच धन के मितव्यय, अतिव्यय, अपव्यय और संचय के विषय में बहुत ही सटीक व्याख्या की है और यथेष्ट मार्गदर्शन दिया है; यथाधन का मितव्यय करो, अति व्यय नहीं अपव्यय हो तो कभी नहीं / भूलकर स्वप्न में भी नहीं और/ अपव्यय तो.....सर्वोत्तम ! यह जो धारणा है / वस्तु तत्त्व को छूती नहीं कारण कि / यथार्थ दृष्टि से / प्रतिपदार्थ में उतना ही व्यय होता है/ जितनी आय /
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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