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________________ अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 अर्थात् इस कारण जैसे संसारी जीव हैं उन्हीं के समान ये (मिथ्यादृष्टि-स्वयं को देव कहने वाले) भी हैं फिर अपने और दूसरे जीवों को ठगने वाले इनके वचनों को कौन प्रमाण मानेगा? यदि कोई दर्शनमोह के अधीन होकर कुदेवों के वचनों को प्रमाण मानता है तो समझना चाहिए कि वह मूर्खात्मा विष के घट से अमृत के पीने की इच्छा करता है। वर्तमान में ऐसा देखा जाता है कि आयतन और अनायतन; दोनों को एक ही स्थान पर समकक्ष विराजमान कर दिया जाता है। जैसेअरहन्त देव के साथ स्वर्ग के देव। यह स्थिति उचित नहीं है। इस तरह धर्म ग्रन्थों के नाम पर संसार पोषक राग-द्वेष युक्त ग्रन्थों का प्रकाशन कर उन्हें जिनवाणी के साथ विराजमान कर दिया जाता है। यह स्थिति उचित नहीं है। दिगम्बर वेशधारी वीतरागी गुरु ही आयतन हैं। जबकि आज ऐसे भी दिगम्बर वेशी साधु देखने में आ रहे हैं जो परिगह से युक्त हैं, अपने ही बनाए मठों में वर्षों से रह रहे हैं, आरम्भ के कार्यों में संलग्न हैं, धन, पैसादि का लेन-देन करते हैं, आचार-विचार में हीनता स्पष्ट दिखाई देती है और कोई कोई तो स्पष्ट कहते हैं कि हम जैन संत नहीं, जन संत हैं, ऐसे तथाकथित साधु की यदि कोई सेवा-सुश्रूषा करता है तो वह कुगुरु सेवक अनायतन की श्रेणी में ही आयेगा। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि हम तो सभी धर्मों को मानते हैं, सभी देवों को मानते हैं, सभी गुरुओं को मानते हैं, सभी के वचन-प्रवचन सुनते हैं, हमें तो भीड़ में मजा आता है; ऐसे लोगों को स्पष्ट जान लेना चाहिए कि वे अनायतन से ही जुड़े हुए हैं और मिथ्यादृष्टि हैं। इन्हें वैनयिक मिथ्यादृष्टि की श्रेणी में रखा जायेगा। हमें स्पष्ट याद रखना चाहिए कि हम उन देव-शास्त्र-गुरु के आराधक बनें जो दोष रहित हैं, रत्नत्रय से युक्त हैं। इसी में हमारा कल्याण निहित है। हम करें वंदना उनकी जो वंदन योग्य बने हैं। वीतरागता से पूरित जो राग-द्वेष हने हैं। तन से मन से और वचन से आतम ही को ध्याते, उनकी आराधन करने पर उन जैसे बन जाते॥
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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