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________________ अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 सावज्जमणाययणं असोहिठाणं कुसीलसंसग्गि। एगट्ठा होंति पया एए विवरीय आययणा॥१२ ॥अभिधान राजेन्द्र कोष।। अर्थात् जिस स्थान पर खोटा कार्य करने हेतु जनता एकत्रित होती है; ऐसे पाप युक्त अशुद्धि के स्थान को अनायतन कहते हैं और इसके विपरीत स्थान आयतन कहलाते हैं। जो जीव इन अनायतनों को मानता है वह सच्चा सम्यग्दृष्टि या जिनधर्म पालक नहीं हो सकता। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा-319 में कहा गया है कि दोस-सहियं पि देवं जीव-हिंसाइ-संजुदं धम्म।' गथासत्तं च गुरुं जो मण्णदि सो हु कुद्दिट्ठी॥ अर्थात् जो दोष सहित देव को, जीव हिंसा आदि से युक्त धर्म को और परिग्रह में फंसे हुए गुरु को मानता है वह मिथ्यादृष्टि है। भव्यजनों को सम्बोधित करते हुए कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा-319 तथा 320 में कहा गया है कि ण य को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं। उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि॥ भत्तीए पुज्जमाणो वितर-देवो वि देदि जदि लच्छी। तो किं धम्म कीरदि एवं चिंतेइ सद्दिट्ठी॥4 अर्थात् न तो कोई जीव को लक्ष्मी देता है और न कोई उसका उपकार करता है। शुभाशुभ कर्म ही जीव का उपकार और अपकार करते हैं। सम्यग्दृष्टि विचारता है कि यदि भक्तिपूर्वक पूजा करने से व्यन्तर देवी-देवता भी लक्ष्मी दे सकते हैं तो फिर धर्म करने की क्या आवश्यकता है ? पं. श्री मेधावी विरचित धर्मसंग्रहश्रावकाचार में कुदेवों के विषय में चर्चा करते हुए कहा है कि अतः संसारिणो जीवा यादृशास्तादृशा अमी। वाक्यं प्रमाणमेतेषां कुतः स्वपरवंचकम्॥ दृग्मोहवशतः कश्चित्प्रमाणयति तद्वचः। विषकुंभादसौ मूढः सुधां पातुं समीहते॥
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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