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________________ अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 'प्रत्याहृत्य यदा चिन्तां नानालम्बनवर्तिनीम्। एकालम्बन एवैनां निरुणद्धि विशुद्धधीः॥ तदास्य योगिनो योगाशिचिन्तैकाग्रनिरोधनम्। प्रसंख्यानं समाधिः स्याद्ध्यानं स्वेष्टफलप्रदम्॥९ जिस समय विशुद्ध बुद्धि वाला योगी किसी एक मुख्य पदार्थ का अवलम्बन कर अनेक पदार्थों के अवलम्बन में रहने वाली चिन्ता को दूर कर केवल उसी एक पदार्थ के चिन्तन को स्थिर करता है, उस समय उस योगी का चिन्तन योग कहलाता है। उसी को चिन्ता की एकाग्रता का निरोध कहते हैं, उसी को प्रसंख्यान कहते हैं और उसी को समाधि कहते हैं और वही आत्मा को इष्ट फल देने वाला ध्यान कहलाता है। इस सन्दर्भ में एक अन्य श्लोक भी परम्परागत रूप से प्राप्त होता है, जिसमें योग, ध्यान, समाधि, धीरोध, स्वान्तनिग्रह एवं अन्त:संलीनता को पर्यायवाची कहा गया है 'योगो ध्यानं समाधिश्च धीरोधः स्वान्तनिग्रहः। अन्तःसंलीनता चेति तत्पर्यायाः स्मृताः बुधैः॥१० ये सभी शब्द अर्थतः किञ्चित् भिन्न होने पर भी एकाग्रचिन्ता निरोध रूप होने से पर्यायवाची कहे गये हैं। अर्धमागधी जैन आगमों में योग के स्थान पर प्रायः ध्यान शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु नियुक्तियों के परिशीलन से स्पष्ट हो जाता है कि योग एवं ध्यान में किञ्चित् अन्तर होने पर भी आगे चलकर दोनों एकार्थक बन गये हैं।' हाँ इतना अवश्य है कि ध्यान के प्रथम दो भेद आर्त एवं रौद्र योग रूप नहीं हैं, केवल अन्तिम के दो भेद धर्म एवं शुक्ल ध्यान को ही योग रूप कहा गया है। जैनाचार्य विद्य सोमदेव ने योग के आठ अंगों का वर्णन किया है 'संयमो नियमश्चैव करणं च तृतीयकम्। प्राणायामः प्रत्याहारः समाधिर्धाणा तथा॥ ध्यानं चेतीह योगस्य ज्ञेयमष्टांगकं बुधैः।१२ संयम, नियम, करण, प्राणायाम, प्रत्याहार, समाधि, धारणा एवं ध्यान को विद्वानों ने योग के आठ अंग कहे हैं।
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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