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________________ अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 अभ्युदय और उत्थान होकर मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। हमारी मौजूदा दुखभरी हालत, हमारे पापी आचरण की दलील है, बुरे कर्मों का नतीजा, और यह जाहिर करती है कि हममें धर्म का आचरण प्रायः नहीं रहा। वास्तव में हम धर्म-कर्म से बहुत गिर गये हैं। हमारी पूजा, भक्ति, सामायिक, व्रत, नियम, उपवास, दान, शील, तप और संयम आदि क्रियायें भाव-शून्य होने से बकरी के गले में लटकते हुए थनों के समान है। देखने-दिखाने के लिये ही धार्मिक क्रियायें हैं, परन्तु उनमें प्राण नहीं, धर्म का भाव नहीं और न हमें उनका रहस्य ही मालूम है। उनके मूल में प्रायः अज्ञान भाव, लोक दिखावा, रूढ़िपालन, मान-कषाय रहता है। जो क्रियायें सम्यक्ज्ञानपूर्वक, आत्मीय-कर्तव्य समझ कर नहीं की जातीं वे सब मिथ्या क्रियायें हैं और संसार के दु:खों का कारण हैं। (२) आवश्यकताओं की वृद्धि- जहाँ तक मैंने इस मामले पर विचार किया, दु:खों का प्रधान कारण- हमने अपनी आवश्यकताओं को फिजूल बढ़ा लिया है और वैसा करके अपनी आदत, प्रकृति और परिणति को बिगाड़ लिया है। व्यर्थ की आवश्यकताओं को बढ़ा लेना वास्तव में दु:खों को निमंत्रण देना ही है। एक उदाहरण देकर मुख्तार साहब ने इसको और स्पष्ट कर दिया। एक मनुष्य आठ सौ रुपया मासिक वेतन पाता है और दूसरा सौ रुपया मासिक, सौ रुपया वाले भाई की वेतनवृद्धि होकर दो सौ रु. कर दी जाती है और आठ सौ पाने वाले की पदच्युति (तनुज्जुली) से 100रु. कम कर दिये जाते हैं। दो सौ रु. पाने वाला बहुत खुश है, आनंद मना रहा है, इष्ट मित्रों को मिठाइयाँ बाँटता है। प्रत्युत आठ सौ रु. पाने वाले की वेतन सौ रु. कम हो जाने से यद्यपि उसे सात सौ रु. मिलने पर भी दुःखित चित्त है, शोक में डूबा रहता है। सोचता है- क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, मेरी तो तकदीर फूट गई आदि-आदि। इन दोनों भाईयों के अन्त:करण की हालत को यदि देखा जाये तो इसमें संदेह नहीं कि बड़ा वेतन पाने वाला दुःखी और छोटी वेतन पाने वाला सुखी है। ऐसा क्यों ? वस्तुतः रुपये से आदमी सुखी या दुखी नहीं है। कम वेतन वाले ने अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखा था, जबकि
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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