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________________ अनेकान्त 68/1, जनवरी - मार्च, 2015 चतुर्विध पुरुषार्थ के साधन में बाधा उत्पन्न होती है। इसीलिए मनुष्य के लिए प्रतिपादित पुरुषार्थ चतुष्टय के साधन में आरोग्य (शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता) को प्रमुखता दी गई है 84 - धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्॥ पूर्वजन्मकृत अशुभकार्यों के उदय से तथा प्रकृति, देश, काल आदि के वैषम्य से कई बार यह शरीर रोगी या विकार ग्रस्त बन जाता है। रूग्ण शरीर के द्वारा न तो सुखोपभोग होता है और न ही धर्म की साध ना। अतः प्रत्येक कार्य के लिए शरीर की निरागता परमावश्यक है। शरीर के विकारग्रस्त होने पर जब धर्म का साधन सम्भव नहीं होता है तो साधना के पथ पर आरूढ़ होना कैसे सम्भव होगा? साधना के अभाव से कर्मों की निर्जरा सम्भव नहीं है, और कर्मनिर्जरा के बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। अतः स्पष्ट है कि इन समस्त कार्यों एवं लक्ष्य की पूर्ति के लिए शारीरिक आरोग्य परमावश्यक है। शारीरिक आरोग्य की आवश्यकता का प्रतिपादन आयुर्वेद शास्त्र तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में तो किया ही गया है, जैन ग्रन्थों में भी जैनाचार्यों के द्वारा शारीरिक आरोग्य की उपयोगिता एवं आवश्यकता बतलाई गई है। श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रन्थ कल्याणकारक में इस विषय में लिखा है न धर्मस्य कर्ता न चार्थस्य हर्त्ता न कामस्य भोक्ता न मोक्षस्य पाता। नरो बुद्धिमान् धीरसत्वोऽपि रोगी यतस्तद्विनाशाद् भवेन्नैव मर्त्यः ॥ अर्थात् मनुष्य बुद्धिमान और धीरसत्व (दृढमनस्क) होने पर भी यदि रोगी हो तो वह न धर्म कर सकता है, न धन कमा सकता है, न काम का उपभोग कर सकता है और न मोक्ष का साधन कर सकता है। अर्थात् रोगी मनुष्य धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष रूपी चतुर्विध पुरुषार्थ का साधन नहीं कर सकता है। उस पुरुषार्थ चतुष्टय के नष्ट होने से मनुष्य भव में जन्म लेने पर भी वह मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं है। यहाँ स्पष्टतः चतुर्विध पुरुषार्थ साधन का मूल निरोग या स्वस्थ्य शरीर निरूपित किया गया है। उसके बिना मनुष्य जीवन की कोई सार्थकता ही नहीं है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह सदैव मिथ्या
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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