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________________ अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 धार्मिक जीवन और स्वास्थ्य ___- आचार्य राजकुमार जैन मनुष्य के जीवन में आचरण का विशेष महत्व है। आचरण ही मनुष्यों को सदाचारी, कदाचारी या दुराचारी बनाता है। आचरण की शुद्धता मनुष्य के सात्विक एवं धार्मिक जीवन यापन का आचार है। सद्आचार विचार ही मनुष्य को धार्मिक जीवन यापन की प्रेरणा देते हैं। कोई भी धर्म हो वह कभी भी मनुष्य को कदाचरण या दुराचरण की ओर प्रेरित नहीं करता है। आचरण का प्रभाव ही जीवन को धार्मिक या अधार्मिक बनाता है। अन्य धर्मों की भांति जैनधर्म में भी अन्य बातों के अतिरिक्त आचरण को विशेष महत्व दिया गया है। यद्यपि जैन धर्म एक साधना प्रधान धर्म है और साधना के माध्यम से अपनी आत्मा को निर्मलता के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाकर समस्त सांसारिक बंधनों से उसे मुक्त कराना इस धर्म का चरम लक्ष्य है। संसार के समस्त जीवधारी प्राणियों की आत्मा का निवास उनके भौतिक शरीर में होता है। अतः साधना के क्षेत्र में सशरीर आत्मा की ही उपयोगिता है। शास्त्रों में भी इसका समर्थन करते हुए कहा गया है- “शरीरमाद्यं खल धर्मसाधनम्।" इसकी भी दो अवस्थाएं होती हैं- एक स्वस्थावस्था और दूसरी विकारावस्था। शरीर और मन यदि स्वस्थ रहते हैं जो जीवन के सभी कार्य निराबाध रूप में सम्पन्न होते हैं। आहार विहार आदि अपनी दैनिक क्रियाओं में वह सुख का अनुभव करता है, क्योंकि वह अनुकूल वेदना रूप है- "अनुकूल वेदनीयं सुखम्"। उसके विपरीत जब शरीर अथवा मन में अवस्थ्यता होती है तो उसे दुख का अनुभव होता है। यह दुख प्रतिकूल वेदना कहलाता है- 'प्रतिकूल वेदनीयं दुखम्' (पतञ्जलि) शारीरिक या मानसिक अवस्थता की स्थिति में मनुष्य असन्तुलित एवं अव्यवस्थित अनुभव करता है जिससे उसके धर्म साधन, अर्थ साधन (व्यवसाय) कामसाधन (सांसारिक कार्य करने) तथा मोक्ष साधन रूप
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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