SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 62 अनेकान्त 68 /1, जनवरी-मार्च, 2015 तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के विभंगज्ञान ( अवधिअज्ञान) होता है। इस अपेक्षा से क्षायोपशमिक अवधिज्ञान व्यापक है जबकि गुणप्रयय अवधिज्ञान में गुण शब्द सम्यक्त्व से युक्त अणुव्रत और महाव्रत जिसके होते हैं और उनके निमित्त से जो अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है। इसमें सम्यग्दृष्टि के उत्पन्न अवधिज्ञान का ही ग्रहण किया गया है। मिथ्यादृष्टि के जो विभंगज्ञान होता है उसका ग्रहण नहीं किया गया है। प्रश्न- क्या मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि होने पर अवधि में कुछ अंतर हो सकता है ? उत्तर- भवप्रत्यय अवधिज्ञान में संक्लिशमान और असंक्लिशमान भेद नहीं है। जैसे रंगीन कांच और और सफेद पारदर्शी कांच से देखने में अंतर होता है, वैसे ही पहले मिथ्यादृष्टि था, तब रंगीन कांच से देखता था। अर्थात् अस्पष्ट (अयथार्थ) देखता था और सम्यग्दृष्टि होने के बाद पारदर्शी कांच से देखता है अर्थात् स्पष्ट (यथार्थ) देखता है। मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि होने पर द्रव्यों की वृद्धि नहीं होती, लेकिन पर्याय में वृद्धि होगी, क्योंकि सही अर्थात् स्पष्ट (यथार्थ) देखने लगा है। अवधिज्ञान के अन्य प्रकार / गुणप्रत्यय के प्रकार : आगमों में प्राप्त प्रकार - भगवतीसूत्र में आधोऽवधिक और परमोवधिक का उल्लेख है। वहाँ छद्मस्थ की आधोवधिक से और केवली की परमोवधिक से तुलना की है। जैसे कि छद्मस्थ जीव परमाणु पुद्गल आदि को प्रमाण से जानता और देखता है उतने ही प्रमाण में आधोवधिक जानता और देखता है एवं जो परमावधिक जानता है वही केवली जानता देखता है।" इस तथ्य के आधार से ऐसा समझा जा सकता है कि प्राचीन काल में अवधि ज्ञान के दो भेद थेआधोऽवधिक (सामान्य अवधिज्ञानी) और परमोवधिक। प्रज्ञापनासूत्र के तेतीसवें अवधिपद में वर्णित सात द्वारों के आधार पर अवधिज्ञान के चौदह भेद प्राप्त होते हैं। 1. भवप्रत्यय, 2. गुणप्रत्यय, 3. आभ्यंतर, 4. बाह्य, 5. देशावधि, 6. सर्वावधि, 7. अनुगामी,
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy