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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015
शब्द 'कारण' (निमित्त) अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव और नरकादि भव औदयिक भाव है। परस्पर विरुद्ध होने से नरकादि भव अवधिज्ञान का हेतु कैसे हो सकता है? वास्तव में तो नारकी और देवता के भी अवधिज्ञान क्षयोपशम के निमित्त से होता है, परन्तु नारकी और देव के भव में अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम नियम से होता है, इसलिए नारकी ओर देवता के अवधिज्ञान को भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं। इसलिए भवप्रत्यय अवधिज्ञान में भी क्षयोपशम मुख्य कारण है। अकलंक ने भवप्रत्यय में भव को बाह्य कारण स्वीकार किया है। 4
सारांश रूप में हम कह सकते हैं कि कर्मों का जो क्षय, क्षयोपशम और उपशम होता है वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पांच प्रकार का होता है। इसलिए नारकी और देवता के भव का निमित्त मिलने पर जीव के अवधिज्ञानावरणीय कर्म का अवश्य क्षयोपशम होता है और भव के निमित्त से ही क्षयोपशम होता है इसलिए इसे भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं। गुणप्रत्यय (क्षायोपशमिकप्रत्यय) अवधिज्ञान का स्वरूप :
विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार तप आदि विशेष गुणों के परिणाम से उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान क्षयोपशम प्रत्यायिक कहलाता है। यह ज्ञान संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य में होता है।
नंदीसूत्र के मूल पाठ में आया है 'को हेऊ खाओवसमियं?' अर्थात् क्षायोपशमिक अवधिज्ञान का हेतु क्या है? इसका उत्तर देते हुए गुरु कहते हैं कि अवधिज्ञानावरणीय कर्म के उदयगत कर्मदलिकों का क्षय होने से तथा अनुदित कर्मदलिकों का उपशम होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है। अर्थात् अवधिज्ञानावरणीय कर्म के उदयावलिका में प्रविष्ट अंश का वेदन होकर पृथक् हो जाना क्षय है और जो उदयावस्था को प्राप्त नहीं है, उसके विपाकोदय को दूर कर देना (स्थगित कर देना) उपशम कहलाता है। जिसे अवधिज्ञान का क्षयोपशम ही मुख्य कारण हो, वह क्षयोपशम प्रत्यय या क्षायोपशमिक-प्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता है।