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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 नेमिचन्द्र, और आचार्य वादिदेवसूरि आदि आचार्यों ने मुख्य रूप से अवधिज्ञान के दो भेद किए हैं- भवप्रत्यय ओर गुणप्रत्यय एवं उनके स्वामियों का कथन उपर्युक्तानुसार किया है।
सारांश यह है कि उपुर्यक्त वर्णन के आधार पर अवधिज्ञान के तीन भेद प्राप्त होते हैं- 1. भवप्रत्यय, 2. क्षायोपशमिक और 3. गुणप्रत्यय। परन्तु उपर्युक्त आगमों और ग्रंथों में क्षायोपशमिक और गुणप्रत्यय अवधि ज्ञान, ये दोनों प्रकार एक ही हैं।
आचार्य भद्रबाहु,2 और आचार्य पुष्पदंत के अनुसार अवधिज्ञान के असंख्य प्रकार हैं। जिनभद्र ने विशेषावश्यकभाष्य में स्पष्ट रूप से कहा है कि विषयभूत क्षेत्र और काल की अपेक्षा से अवधिज्ञान के सभी भेद मिलाकर संख्यातीत (असंख्यात) हैं और द्रव्य और भाव की अपेक्षा से अवधिज्ञान के अनंत भेद होते हैं।4 अवधिज्ञान के ज्ञेयपने के नियम से जितना अवधिज्ञान का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र, प्रदेश और उत्कृष्ट काल के समय के परिणाम है, इतना ही अवधिज्ञान के भेदों का परिणाम है। फिर संख्यातीत अर्थात् अनंत इस प्रकार अवधिज्ञान के अनंत भेद हैं। उनमें से कुछ भेद तो भवप्रत्ययिक और कुछ भेद क्षायोपशमिकप्रत्ययिक है। इसलिए मुख्य रूप से अवधिज्ञान के उपर्युक्त दो ही भेद हैं। इन दो भेदों को समग्र जैन परम्परा स्वीकार करती है। भवप्रत्यय अवधिज्ञान का स्वरूप :
विशेषावश्यकभाष्य के अनसार- जिस प्रकार पक्षियों द्वारा आकाश में उड़ने की शक्ति में भव (जन्म) कारण है उसी प्रकार से नारकी और देवता में अवधिज्ञान का हेतु भव (जन्म) है, इसलिए इस अवधिज्ञान को भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं।47
भव अर्थात् आयु और नामकर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव की जो पर्याय होती है उसे भव कहते हैं।48 भव के निमित्त से अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं क्योंकि कर्मों के उदय से द्रव्यादि चारों में प्रभाव तो होता ही है। ऐसा ही उल्लेख पुष्पदंत,49 अकलंक, और मलयगिरि आदि आचार्यों ने भी किया है। भवप्रत्यय में प्रयुक्त प्रत्यय