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________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 जीवन-दृष्टि : बोधकथा सकरात्मक सोच प्रस्तुति- श्रीमती राखी जैन, एम० कॉम० चिन्तन की दो दृष्टियाँ हैं - निषेधात्मक दृष्टि और सकारात्मक दृष्टि। प्रायः व्यक्ति निषेधात्मक-सोचता है जो परिणाम में उसे निराशा और कर्त्तव्य से उदासीनता देता है। निषेधात्मक सोच- जीवन में असफलता का उदय होना। सफलता का महत्वपूर्ण सूत्र है - सकारात्मक दृष्टि से सोचना। जिसने चित्त को निर्मल और मन को एकाग्र करना सीखा है। व्यग्रता से नहीं बल्कि समग्रता की दृष्टि से सोचता है सकारात्मक सोच है। खण्ड में उलझकर हम समग्रता को भुला बैठे हैं। जीवन दर्शन में हमाने शरीर खण्ड को पकड़कर आत्मा भी अखण्डता को भुला दिया है। अखण्ड में तो खण्ड उपलब्ध हो सकता है, परन्तु खण्ड में तो खण्ड स्वयं खण्डित हो जाता है। यदि चेतना को सम्हाल लिया तो शरीर भी संभल जाता है और आत्मा भी। आत्मा को कमजोर बनाकर शरीर को सम्हालना मूढ़ता है। आत्मा को सशक्त बनाकर जो भी साधना की जाती है उससे शरीर भी बना रहता है। हमारी सोच समग्रता के लिए हो, अखण्डता के लिए हो तभी वह सकारात्मक सोच बन पायेगी। एक ऐसी घटना है जो जीवन के प्रति सकारात्मक सोच के लिए प्रेरित करती है। यह घटना भी एक चोर से सम्बन्धित है। एक चोर एक गरीब परन्तु साधु स्वभाव वाले गृहस्थ के घर में चोरी करने घुसा। उसने देखा घर में कुछ सामान ही नहीं है। खाली घर था। घर का मालिक एक कमरे में मद्धिम केण्डल जलाए कुछ लिख रहा था। मालिक ने देखा कि घर में कोई घसा है। जैसे ही उसने उठकर देखा कि चोर बाहर जाने लगा।
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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