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________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 अपने परिवार और अपने से संबंधित व्यक्तियों के प्रति जीवन में हुए अपराधों को प्रियवचन बोलकर सबसे क्षमा याचना करके और दूसरों को भी क्षमा करके, अपने अंत:करण को निष्कषाय बनाए। सभी से क्षमायाचना करना तथा स्वयं भी मन, वचन और कायपूर्वक सबको क्षमा कर देना, आत्मोदय की दृष्टि से उत्तमोत्तम कार्य हैं। अंत समय में क्षमा करने वाला संसार का पारगामी होता है और वैर-विरोध रखने वाला अर्थात क्षमा धर्म को न अपनाने वाला जीव अनंत संसारी होता है। सल्लेखना में संलग्न साधक को न तो शीघ्र मरण की कामना करना चाहिए और न अधिक जीने की आकांक्षा हो। उसे तो अपनी अजर-अमर आत्मा के अनुभव में ऐसा लीन हो जाना चाहिए कि वह जीवन और मरण के विकल्पों से बहुत ऊपर उठ जाये। उसके लिए इन दोनों में कोई विशेष अन्तर न रह जाए। आचार्य समन्तभद्र ने (रत्नकरण्ड. – 123 में) ठीक ही कहा है – अन्तक्रियाधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते। तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम्॥ अर्थात् जीवन के अंत में समाधि का आलंबन लेकर शरीर का त्याग करना ही जीवन में की गई तपस्या का फल है, जिसे मुनि और गृहस्थ सभी को समान रूप से अपनाना चाहिए और शक्तिभर पूर्ण प्रयत्न कर समाधिमरण करने का अवसर चूकना नहीं चाहिए। __आचार्य अमृतचन्द ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय (176) में कहा है - "मैं मरण के समय अवश्य विधिपूर्वक समाधिमरण करूँगा। इस प्रकार भावना रूप परिणति करके मरणकाल आने से पहले ही सल्लेखना व्रत अंगीकार करना चाहिए।" आ. सकलकीर्ति ने भी कहा है - धीरत्वेन सतां मृत्यु, कातरत्वेन चंद् भवेत्। कातरत्वं बतात्त्यक्त्वा धीरत्वे मरणं वरम्॥ मृत्यु धीरता से भी प्राप्त होती है और कातरता (दीनता) से भी प्राप्त होती है, तब कातरता को साहस के साथ छोड़कर धीरतापूर्वक मरण करना श्रेष्ठ है। जैनकवि पं. दीनदयाल जी ने कहा है -
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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