________________
80
अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015
करने का इच्छुक भी रहता है। वह नहीं चाहता कि शरीर का त्याग रोते-बिलखते, लड़ते-झगड़ते, संक्लेश परिणाम करते और आर्त-रौद्रध्यान तथा रागद्वेष की भट्टी में जलते हुए प्रमत्त या असावधान या बेहोशी की अवस्था में हो, इनकी जगह दृढ़, शांत, आत्मस्थ और सरल परिणामों के साथ विवेकपूर्ण 'अप्रमत्त एवं जागृत' स्थिति में वीरवृत्ति अर्थात् वीरता के साथ समाधिमरण पूर्वक उसका पार्थिव शरीर छूटे। इस महान् लक्ष्य की संप्राप्ति में सल्लेखना धारणपूर्वक मृत्यु ही महोत्सव की अवधारणा को पुष्ट करती है। सल्लेखना धारण की परिस्थितियाँ - आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचार (122) में कहा है -
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः॥ अर्थात् जिसके प्रतिकार (निवारण) का कोई उपाय नहीं हो, ऐसे उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और असाध्य रोग के उपस्थित होने पर जीवन में परिपालित धर्म (श्रद्धा, ज्ञान और आचार) की रक्षा के लिए शरीर का विधि पूर्वक त्याग करना सल्लेखना या समाधिमरण है।
साधक अपने जीवन में सर्वप्रथम यह देखता है कि हमारे शरीर और आत्मा - इन दोनों में से कौन नश्वर और कौन शाश्वत है? मेरा भला किसमें निहित है? ऐसी स्थिति में नश्वर शरीर की अपेक्षा साधक शाश्वत आत्मा और उसके कल्याण को ही सर्वाधिक महत्व उचित समझता है। पं0 आशाधार ने सागारधर्मामृत (8/7) में कहा है
नावश्यं नाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामदः।
देहो नष्टः दुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यन्तदुर्लभः॥ अर्थात् अवश्य नष्ट होने वाले शरीर के लिए इच्छित फलदायक धर्म का नाश नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि शरीर नष्ट हो जाने पर तो पुनः दूसरा शरीर मिल सकता है, किन्तु धर्म का पुनः मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। अतः अपने संयममय जीवन को सार्थक बनाने हेतु प्रत्येक साधु और श्रावक के लिए समाधिमरण की प्राप्ति हेतु सजग और प्रयत्नशील रहना अपेक्षित है। क्योंकि आत्मा और शरीर को भिन्न-भिन्न (जुदा-जुदा) मानने और जानने वाले अर्थात् भेदविज्ञान की साधना करने वाले ज्ञानी पुरुष मात्र विषय कषाय