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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015
25 अथवा मध्यमायु है या दीर्घायु है इन सब विषयों का ज्ञान करा देता है वह आयुर्वेद है।
यहाँ यह स्मरणीय है कि आयु शब्दका अर्थ वय नहीं करना चाहिये। आयु और वय में पर्याप्त भिन्नता है। आयु शब्द यावज्जीवन काल का बोधक है जबकि वय शब्द जीवन की एक निश्चित कालावधि का द्योतक है। आयु के लिए कौन सी वस्तु लाभदायक है अथवा किस वस्तु या विषय के सेवन सेआयु की हानि हो सकती है ? किस प्रकार की आयु हितकर है और किस प्रकार की आयु अहित कर है ? यह संपूर्ण विषय जिस शास्त्र में वर्णित होता है तथा आयु को बाधित करने वाले रोगों का निदान और उनका प्रतिकार करने के उपायों (चिकित्सा) का वर्णन जिस शास्त्र में किया गया है उसे विद्वानों ने आयुर्वेद संज्ञा से अभिहित किया है। इस शास्त्र में आहार-विहार सम्बन्धी नियमों और अन्य सदाचारों का पालन करने से दीर्घायु की प्राप्ति हो सकती है। यह वैद्य शास्त्र लोकोपकार के लिए प्रतिपादित किया गया है। इसका प्रयोजन द्विविध है. 1. स्वस्थ पुरुषों के स्वास्थ्य की रक्षा करना और 2. रोगी मनुष्यों के रोग का प्रशमन करना।
भगवान् जिनेनद्र देव के अनुसार दो प्रकार का स्वास्थ्य बतलाया गया है- पारमार्थिक स्वास्थ्य और व्यवहार स्वास्थ्य। इन दोनों में पारमार्थिक स्वास्थ्य मुख्य है। परमार्थ स्वास्थ्य का निम्न लक्षण बतलाया गया है
अशेषकर्मक्षयजं महाद्भुतं यदेदात्यन्तिकमद्वितीयम्। अतीन्द्रियं प्रार्थितमर्थवेदिभिः तदेतदुक्तं परमार्थनामकम्॥
-कल्याणकारक अ. २/३ अर्थात् आत्मा के सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने से उत्पन्न, अत्यन्त अद्भुत, आत्यन्तिक एवं अद्वितीय विद्वानों अतीन्द्रिय मोक्षसुख ही पारमार्थिक सुख कहते है। व्यवहार स्वास्थ्य का लक्षण निम्न निम्न प्रकार बतलाया गया है। समाग्नि धातुत्व मदोषविभ्रमो मलक्रियात्मेन्द्रियसुप्रसन्नता। मनः प्रसादश्च नरस्य सर्वदा तदेवमुक्तं व्यवहारजं खलु॥
- कल्याणकारक अ. २/४