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________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 चिकित्सितं चोभयलोकसाधनं, चिकित्सितान्नास्ति परं तपश्च॥ अर्थात् रोगियों की चिकित्सा, पाप विनाश करने क लिए, धर्म की अभिवृद्धि के लिए की जानी चाहिए। यह उभयलोक का साधन है अतः चिकित्सा से बड़ा कोई तप नहीं है। प्राणावाय के उद्भव और विकास की पृष्ठभूमि आ. शुभचन्द्र ने ग्रन्थ ज्ञानार्णव में देवनन्दी (पूज्यपाद) को इस प्रकार नमस्कार किया है अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाञ्चित्तसम्भवम्। कलंकमङिग्नां सोऽयं, देवनन्दी नमस्यते॥ जिनके वचन प्राणियों के काय वाक् और चित्त में उत्पन्न दोषों को दूर कर देते हैं, उन देवनन्दी जी को नमस्कार है। इसमें देवनन्दी के तीन ग्रन्थों का उल्लेख है- काय (शरीर) के दोष का दूर करने वाला वैद्यकशास्त्र, वाग्दोषों को दूर करने वाला व्याकरण ग्रन्थ (जैनेन्द्र व्याकरण) और चित्त (मन) के दोषों को दूर करने वाला ग्रन्थ समाधितंत्र है। इनमें प्रथम वैद्यक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, जबकि शेष दोनों ग्रन्थ उपलब्ध है। इस प्रकार पूज्यपाद स्वामी का चिकित्सा विषयक ग्रन्थ अवश्य रहा है। इसी तरह पूज्यपाद स्वामी ने शालाक्य तंत्र, पात्रकेसरी मुनि ने शल्यतंत्र, आचार्य सिद्धसेन द्वारा अगदतंत्र एवं भूत विद्या, दशरथ मुनि के द्वारा कय चिकित्सा, मेघनादाचार्य द्वारा बालरोगाधारित कौमार भृत्य और सिंहनाद मुनीन्द्र के द्वारा बाजीकरण एवं दिव्यामृत (रसायन) तंत्र का निर्माण किया गया। (कल्याणकारक परिच्छेद 25 के श्लोक 84 के आधार पर) आन्ध्रप्रदेश के प्राचीन चालुक्य राज्य में दिगम्बराचार्य श्री उग्रादित्याचार्य ने कल्याणकारक नामक ग्रन्थ की रचना की थी, जो एक मात्र उपलब्ध ग्रन्थ है। आगम साहित्य में चिकित्सा विज्ञान प्रकीर्ण रूप से आगम ग्रन्थों में वैद्यक सम्बन्धी विषयों का उल्लेख निम्न प्रकार से प्राप्त होता है। (1) स्थानांग सूत्र- रोगों की उत्पत्ति के नौ कारण (2) निशीथ चूर्णि- महावैद्य का उल्लेख, दृष्टपाकी शास्त्रों का उल्लेख
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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