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________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 ____ मानं च तत्त्वं यत्रोक्तमायुर्वेद स उच्यते॥ अर्थात् जिस शास्त्र में हित आयु, अहित आयु, सुख आयु, दुख आयु इन चार प्रकार की आयु के लिए पथ्य, अपथ्य इस आयु का मान तथा आयु का स्वरूप प्रतिपादित हो वह आयुर्वेद कहलाता है। आयुर्वेद का प्रयोजन क्या है ? प्रयोजनं बाह्यस्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणमातरस्य विकारप्रशमनं च चरक संहिता-सूत्रस्थान (1/12) आयुर्वेद का प्रयोजन- स्वस्थ पुरुष के स्वास्थ्य की रक्षा करना और व्याधि से पीड़ित मनुष्य के रोग का शमन करना है। आयुर्वेद में अष्टांग- आयुर्वेद में आठ अंगों से चिकित्सा का वर्णन किया गया है, जो अष्टांग के नाम से जाना जाता है। वह इस प्रकार है (1) काय चिकित्सा- संपूर्ण धातुक शरीर की चिकित्सा। (2) बाल चिकित्सा (3) ग्रह चिकित्सा- वे सभी रोग जो सहस्रार व नाड़ी चक्र में दोषाताभ होने से होते हैं। (4) ऊर्ध्वाग चिकित्सा (शालाक्य चिकित्सा) नाक, कान, गला व आँख इनके रोगों की चिकित्सा (5) शल्य चिकित्सा (6) दंष्ट्रा चिकित्सा- सर्पादि विष जंतुओं के द्वारा दंष्ट्र होने पर अथवा स्थावर, जंगम विष के किसी प्रकार शरीर में प्रवेश होने पर की जाने वाली चिकित्सा (7) जरा चिकित्सा- पुनर्योवन प्राप्त रकने के लिए की जाने वाली चिकित्सा (8) वृष चिकित्सा (वाजीकरण चिकित्सा)। सामान्यतः हमारे आहार-विहार की प्रतिकूलता रोगों का कारण होती है ऐसा आयुर्वेद शास्त्र कहता है, लेकिन प्राणावाय (जैन आयुर्वेद) रोगोत्पत्ति में मुख्य हेतु पूर्व जन्मकृत अशुभ कर्मों को मानता है। सहेतुकास्सर्वविकारजातास्तेषां विवेका गुणमुख्य भेदात्। हेतुः पुनः पूर्वकृतं स्वकर्म ततः परे तस्य विशेषणानि॥ -कल्याणकारक-सूत्रा. ९१ रोगों की चिकित्सा : श्री उग्रादित्याचार्य ने चिकित्सा कर्म की प्रशंसा करते हुए कल्याणकारक-7/32 में लिखा है चिकित्सितं पापविनाशनार्थ, चिकित्सितं धर्मविवृद्ध्ये च।
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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