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________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 स्थायी स्तम्भ- 'युगवीर-गुणाख्यान' इस अंक 68/4 में पं. जगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' का उपासना तत्त्व पर लिखे गये आलेख (प्रकाशित-दिस. 1962) के अंतर्गत "मूर्तिपूजा" पर सारगर्भित विचार संपादित-संक्षिप्तीकरण के साथ प्रस्तुत किये जा रहे हैं। ___ -प्रस्तुतकर्ता- पं. निहालचंद जैन, निदेशक वीर सेवा मंदिर मूर्तिपूजा : परमात्मा अपनी जीवन्मुक्तावस्था- अर्थात अर्हन्त-अवस्था में सदा और सर्वत्र विद्यमान नहीं रहता, इस कारण परमात्मा के स्मरणार्थ और परमात्मा के प्रति आदर-सत्काररूप प्रवर्तने के अवलम्बन स्वरूप उसकी अर्हन्त अवस्था की मूर्ति बनाई जाती है। वह मूर्ति परमात्मा के वीतरागता, शान्तता और ध्यानमुद्रा आदि गुणों का प्रतिबिम्ब होती है। उसमें स्थापना-निक्षेप से परमात्मा की प्रतिष्ठा की जाती है। उसके पूजने का भी समस्त वही उद्देश्य है जो ऊपर वर्णन किया गया है, क्योंकि मूर्ति की पूजा से किसी धातुपाषाण का पूजना अभिप्रेत (इष्ट) नहीं है। ऐसा होता तो गृहस्थों के घरों में सैकड़ों बांट बटेहड़े धड़े पसेरे आदि चीजें इसी किस्म की पड़ी रहती है; वे उनसे ही अपना मस्तक रगड़ा करते और उन्हें प्रणामादिक किया करते। पर ऐसा नहीं है। मूर्ति के सहारे से परमात्मा की ही पूजा, भक्ति उपासना और आराधना की जाती है। मूर्ति के द्वारा मूर्तिमान की उपासना का नाम ही मूर्तिपूजा है। इसीलिये इस मूर्तिपूजा के देवपूजा, देवाराधना, जिनपूजन, देवार्चन, भगवत्पर्युपासन, जिनार्चा इत्यादि नाम कहे जाते हैं और इसीलिये इस पूजन को साक्षात् जिनदेव के पूजनतुल्य वर्णन किया है। यथा भवत्याऽर्हत्प्रतिमा पूज्या कृत्रिमाऽकृत्रिमा सदा। यतस्तद्गुणसंकल्पाप्रत्यक्षं पूजितो जिनः ॥९-४२॥ - धर्म संग्रहश्रावकाचार उर्दू के एक कवि शेख साहब ने इस संबन्ध में अच्छा कहा है उसमें है एक खुदाई का जलवा वगर ना शेख ! सिजदा करेसे फायदा पत्थर के सामने ?
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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