________________
अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
71 समन्तभद्र आचार्य ने स्याद्वाद के द्वारा गृहीत अनेकान्तात्मक पदार्थ के धर्मों का अलग-अलग कथन करने वाले को नय कहा है। आचार्य अकलंकदेव कहते है- नयोज्ञातुर अभिप्रायः। अर्थात् ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा नयों की भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ विभिन्न दृष्टिकोणों के अन्तर्गत दी गई है। आचार्य सिद्धसेन के अनुसार - तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणी।
दव्वट्ठियों य पज्जवणयो य सेसा वियप्पा सिं॥ अर्थात्- तीर्थकर के वचन सामान्य-विशेषात्मक हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों से मूल वस्तु की व्याख्या की गयी है। शास्त्रों में जो अन्य नयों का वर्णन मिलता है, वह इन दोनों नयों का विस्तार है। द्रव्यार्थिक नय अभेद रूप तथा सामान्य कथन करता है, किन्तु पर्यायार्थिक नय का विषय भेद रूप पर्याय की विशेषताओं का कथन करना है। द्रव्य निरपेक्ष पर्याय और पर्याय निरपेक्ष द्रव्य त्रिकाल में संभव नहीं है। अतः दोनों नय सापेक्ष है। वे अपने विरोधी नय के विषय में स्पर्श से रहित नहीं है। क्योंकि सामान्य विशेष के बिना और विशेष सामान्य के बिना कभी भी नहीं पाया जाता और भी कहा है- दव्वं पज्जवविउयं दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थिा ' अर्थात् पर्याय से रहित कोई द्रव्य नहीं है और द्रव्य से विहीन कोई पर्याय नहीं है। यह सह-अस्तित्व सदैव रहता है। अतः दोनों नयों में भी सह-अस्तित्व को प्रकट करता है। यदि ये दोनों नय एक दूसरे के विषय का तिरस्कार करके मात्र अपने विषय का ही कथन करें व अन्य का न करें तो ये नय मिथ्यानय अर्थात् झूठे नय कहलाएंगे और यदि एक दूसरे के सापेक्ष कथन करें तो ये ही नय सुनय और सच्चे नय कहलाएंगे।
यदि हम दोनों नयों के सह-अस्तित्व को न स्वीकार करें तो क्या होगा ? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं
ण य दव्वट्ठियपक्खे संसारो णेव पज्जवणयस्स। सासयवियत्तिवाई जम्हा उच्छेयवाईय॥ सुह दुक्खसंपओगो ण जुज्जए णिच्चवायपक्खम्मि। एंगतुच्छेयम्मि य सुहदुक्खवियप्पणमजुत्तं॥