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________________ 70 अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 सम्मइत्तं में प्रतिपादित सह-अस्तित्व का दार्शनिक विवेचन श्रीमती दीप्ति मेहता सम्मइसुत्तं अर्थात् सन्मतिसूत्र अथवा सन्मतितर्कप्रकरण यह एक दार्शनिक रचना है। यद्यपि इस ग्रंथ की विषय वस्तु मूल सिद्धान्तों का प्रतिपादन करती है तथापि आचार्य सिद्धसेन के काव्य कौशल को भी दर्शाती है। सम्मइसुत्तं एक सूत्रबद्ध - लघुकाय कृति है जिसने आचार्य सिद्धसेन को भारतीय नैयायिकों तथा कवियों में दर्शन व शैली- विज्ञान के कारण एक विशिष्ट स्थान व सम्मान दिलाया है। सम्म एक विशुद्ध तर्कविद्या का अनुपम दार्शनिक ग्रंथ है। यह ग्रंथ 167 आर्या छन्दों में प्राकृत भाषा में निबद्ध है जो कि तीन काण्डों में विभक्त है। ग्रंथ के प्रथम काण्ड में मुख्य रूप से नय और सप्तभंगी का, द्वितीय काण्ड में दर्शन और ज्ञान का तथा तृतीय काण्ड में पर्याय - गुण से अभिन्न वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। इस ग्रंथ में सत्यनिष्ठा, ज्ञान, अहंकार- विसर्जन, सहिष्णुता, अहिंसा, मानसिक प्रदूषण से बचाव आदि मानवीय मूल्यों की दार्शनिक मीमांसा की गई है परन्तु मुख्यतः अनेकान्तवाद का प्रतिपाद्य होने से सह-अस्तित्व का दृष्टिकोण मुख्य रहा है। वस्तु-विवेचन के माध्यम से नयों में सह-अस्तित्व, द्रव्य गुण पर्याय में सह-अस्तित्व, उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य में सह-अस्तित्व, पर-मतों में सह अस्तित्व और ज्ञान व चारित्र में सह-अस्तित्व आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। नयों में सह-अस्तित्व - आचार्य वीरसेन स्वामी ने 'धवला' में नय के विषय में कहा हैअनेकान्त गुण और पर्यायों सहित अथवा उसके द्वारा एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में और एक काल से दूसरे काल में अविनाशी स्वभाव रूप रहने वाले द्रव्यों को जो ले जाता है अर्थात् उसका ज्ञान कराता है, उसे नय कहते हैं। '
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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