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________________ अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 इच्छा सीमाकंन - जन्म के साथ इच्छायें शुरू होकर वय के साथ बढ़ती जाती हैं। आयु क्षीण हो जाती है लेकिन इच्छा नहीं। राजा कोणिक महत्वाकांक्षा पूरी करने को जेल में पिता को डाल देता है। आखिर कौन सा दोष, विवेक-बुद्धि को आवृत कर मानव को दानव बना देता है? नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से कहा - सुवण्ण रूप्पस्स उपव्वया भवेसिया हु केलाससभा उसंख्या२२ कैलाश के समान सोने चाँदी के असंख्य पर्वत मिल जाये फिर भी लोभी मनुष्य की तृप्ति नहीं होती, क्योकि इच्छाएँ आकाश के समान है। एक पूरी हुई कि दूसरी तैयार। मनुष्य लोभ तृष्णा के अधीन हो जाता है तो इच्छापूर्ति की हविस उठती है। इच्छाओं का पुतला सारा जीवन तेली के बैल की तरह लगा रहता है। इच्छाओं की पर्ति में कभी सत्ता, पद, धन, स्वास्थ्य, पुत्र आदि के लिए मस्तिष्क में तूफान उठने लगता है। वह अशान्त हो जाता है। इच्छा ऐसी आग है ज्यों-ज्यों तृप्ति की आहुति डालो, त्यों-त्यों तीव्र होकर धधक उठती है। अतः इच्छाओं का विश्लेषण कर आवश्यक पूर्ति व निष्कृष्ट का त्याग करे। शुभइच्छा - समाजसेवा, परोपकार, स्वपरकल्याण, समता, कषाय भाव कम करना उत्कृष्ट है। इच्छा की निष्कृष्टता- अनुचित उपायों, साधनों का प्रयोग, बैंक से लोन लेकर न देना, अनपढ़ ग्रामीणों से लाभ लेना यह सामाजिक पाप है। जैन धर्म में ये इच्छायें कृष्ण लेश्या या रौद्रध्यान से परिणत होती है। लोभ संवरण :- हेमचन्द्र२३ के योगशास्त्र के अनुसार सत्पात्र को धन न देना या दूसरे के धन को ग्रहण करना। आ. अमृतसूरि२४ के अनुसार उपर्युक्त स्थल पर धन व्यय न करना लोभ है। संग्रह करने की वृत्ति से लोभी कभी तृप्त नहीं होते। सद्असद् का विवेक खो देते है। अनन्त पीड़ा परिताप भी उत्पन्न होता है। सभी गुणों का विनाश होता है। लोभो सव्वविणासणो २५ उत्तराध्ययन २६ अध्याय कपिलीय में लोभवृत्ति का स्वरूप व त्याग की प्रेरणा दी है। महर्षि कपिल के जीवन की झांकी बढ़ते-बढ़ते लोभ दो माशा सोने से राजमहल तक पहुंच गई। अतः लोभ को संतोष से जीतना चाहिये। सामाजिक बुराईयों का बडा घटक प्रलोभन है। अतः सद्वतियों द्वारा अशुभ इच्छाओं का त्यागकर परिग्रह की आग को शामित करे। अर्थ के अर्जन में, जिन्दगी व्यर्थ न करों। विसर्जन का आत्मशोधन की दृष्टि से आध्यात्मिक मूल्य है। भौतिकवादी युग में जैन
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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