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________________ अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 होने और उसमें परस्पर विरोधी कहे जाने वाले गुणधर्मों की उपस्थिति के संदर्भ मिलते हैं। जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर ने किसी प्रश्न का उत्तर एकान्तिक दृष्टि से नहीं दिया है। आगमों में उल्लिखित अर्हत् वचनों में हर प्रश्न का उत्तर अपेक्षा भेद से दिया गया है। इसीलिए तीर्थकरों को त्रिपदी का प्रवक्ता कहा गया है। वे वस्तु तत्व को उप्पन्नेइ वा, विगमेई वा, धुवेई वा- इन तीन पदों से परिभाषित किया गया है। यानि, उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्यता प्रत्येक वस्तु का धर्म है। एक ही वस्तु एक ही समय में उत्पन्न भी होता रहता है, उसमें से कुछ विनाश भी होता रहता है। लेकिन कुछ तत्व ऐसे भी हैं जो ध्रुव बने रहते हैं। अनेकान्तवाद न केवल जैनदर्शन में स्वीकृत हुआ बल्कि भिन्न-भिन्न नामों से बौद्ध व अन्य दार्शनिक संप्रदायों में भी इसकी उपस्थिति देखी जा सकती है। जैनों का विभज्जवाद और बौद्धों का शून्यवाद अनेकांतवाद का पर्यायवाची माना जा सकता है। बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद का निषेध किया जो वस्तुतः एकान्तिक दृष्टि का ही अस्वीकार था। अन्य दार्शनिक परंपराओं में संजय वेलट्टिपुत्र के दर्शन के आधार पर ही किया है। हालांकि, संजय का दर्शन निषेधात्मक है जबकि अनेकांतवाद सकारात्मक। हरिभद्र की दृष्टि में अनेकांत - महान दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने अनेकान्तवाद की चर्चा की। बाद में जैन दर्शन में अनेकान्तवाद को पूर्ण सिद्धांत के तौर पर सिद्धसेन दिवाकर ने अपने सन्मति तर्क प्रकरण के माध्यम से स्थापित किया। बाद में जैन परंपरा में अनेकान्त की स्वीकृति बहुत तेजी से हुई और यह जैन दर्शन का मुख्य तत्व बनकर उभरा। लगभग छठी शताब्दी में आचार्य हरिभद्र ने अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी को स्पष्ट करने के लिए अनेकान्तजयपताका नामक ग्रंथ की रचना की और उन पर स्वयं ही टीकाएं लिखी। अनेकांतजयपताका संस्कृत में रचित ३५०० श्लोक ग्रंथांक वाला है। ग्रंथ के शीर्षक से ही इस वाद की महत्ता का अंदाजा हो जाता है। आचार्य हरिभद्र ने प्रमाण का विषय बतलाते हुए लिखा -
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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