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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 संप्रदाय की कमियों का अवलोकन कर उसकी निर्भीकता के साथ समालोचना करना उन जैसे महान क्रांतिकारी के लिए ही संभव था। हरिभद्र ने अपने संप्रदाय के साथ ही अन्य संप्रदायों के अव्यावहारिक और अंधविश्वासी कथाओं की जमकर आलोचना की और उनका उपहास उड़ाया। उनके संबोध प्रकरण और धूर्ताख्यान आदि ग्रंथ विभिन्न धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त इस तरह की बुराइयों के खिलाफ उठी आवाज ही है। आचार्य हरिभद्र प्रतिभा संपन्न, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी तो थे ही, उच्च कोटि के साहित्यकारी भी थे। उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं यानि, धर्म, दर्शन, आचार, काव्य, व्यंग्य, कथा आदि में प्रचुर मात्रा में रचनाएं कीं।
हरिभद्र अपने युग के धर्म संप्रदायों में उपस्थित अंतर और बाह्य के द्वैत को उजागर करते हुए कहते हैं- लोग धर्म मार्ग की बातें करते हैं, किन्तु सभी तो उस धर्म मार्ग से रहित हैं। मात्र बाहरी क्रियाकाण्ड धर्म नहीं है। धर्म तो वहां होता है, जहां परमात्म तत्व की गवेषणा हो, दूसरे शब्दों में जहां आत्मानुभूति हो, स्व को जानने और पाने का प्रयास हो। जहाँ परमात्म तत्व को जानने और पाने का प्रयास नहीं है वह धर्म मार्ग नहीं है। हरिभद्र कहते हैं- जिसमें परमात्म तत्व की मार्गणा है, परमात्मा की खोज और प्राप्ति है, वही धर्म मार्ग ही मुख्य मार्ग है। आगे वे पुनः धर्म के मर्म को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- जहाँ विषय वासनाओं का त्याग हो, क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों से निवृत्ति हो वही तो धर्म मार्ग है। जिस धर्म मार्ग या साधना पथ में इसका अभाव है वह तो नाम का धर्म है। विषय वासनाओं और कषायों अर्थात् क्रोधादि दुष्प्रवृतियों के त्याग के अतिरिक्त धर्म का अन्य कोई रूप हो ही नहीं सकता है। उन सभी लोगों को, जो धर्म मार्ग का आचरण करने से होगा, इसकी समीक्षा करते हुए हरिभद्र यहां तक कहते हैं कि धर्म मार्ग किसी एक संप्रदाय की बपौती नहीं है। जो भी समभाव की साधना करेगा वह मुक्त होगा, फिर वह चाहे श्वेताम्बर हो, दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य कोई। वस्तुतः उस युग में जब सांप्रदायिक दुरभिनिवेश अपने चरम पर थे, यह कहना न केवल हरिभद्र की उदारता या सदाशयता का प्रतीक है, अपितु एक क्रांतिदर्शी आचार्य होने का भी प्रमाण है।
अनेकांतवाद जैन दर्शन की विशिष्ट और महत्वपूर्ण खोज है। इसीलिए जैन दर्शन को अनेक धर्मात्मक या अनैकांति कहा गया है। दर्शन के क्षेत्र